बुधवार, 25 दिसंबर 2013

= १२३ =


卐 सत्यराम सा 卐
शूरा पूरा संत जन, सांई को सेवै । 
दादू साहिब कारणै, सिर अपना देवै ॥२०॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! पूरे सच्चे शूरवीर अनन्य भक्त, परमेश्‍वर की भक्ति करते हैं । वह परमेश्‍वर प्राप्ति के लिये अपना मस्तक भी देने को तत्पर रहते हैं ॥२०॥ 
हरिजन हेतम सारिखा, सती सूर कोई एक । 
जगजीवन माथा दिया, रही नाम की टेक ॥ 
दृष्टान्त ~ हेतम की माता नूरां बड़ी सखी थी । वह प्रतिदिन एक बेहद्दी महात्मा गुरुदेव का सत्संग करने जाया करती थी । हेतम भी बचपन से उनके साथ जाते और संतों को नमस्कार करते । यह बड़े होने पर बड़े दानी हुए । साधु संतों की बड़ी सेवा करते थे । माता का इनको उपदेश था कि हे हेतम ! खुदा के लिये तेरा कोई सिर भी मांग ले, तो दे देना । 
संत इसको हेतम बादशाह कहने लगे । दुनियां ने भी इसी नाम से पुकारना शुरू कर दिया । बादशाह ने हेतम को बुलाया और कहा तुम अपने आपको बादशाह मत कहलाओ । ‘मैं कब कहलाता हूँ ? अपने आप ही कहते हैं ।’ 
बादशाह ने सुना कि वह खुदा के लिये सिर भी दे सकता है, ऐसा दानी है । तब तो बादशाह मंत्री को बोला ~ तुम संत का रूप बनाकर जाओ और हेतम से कहो, हम तेरा सिर लेने आये हैं, खुदा के नाम पर । मंत्री हेतम के यहॉं गया और हेतम ने आकर नमस्कार किया संत रूप को । हेतम ~ सेवा करने की आज्ञा देओ । संत - तुम्हारा सिर चाहिये खुदा के नाम पर । हेतम ने मां से पूछा । मां बोली ~ पुत्र दे दो । हेतम आकर बोला ~ मैंने कच्चा दूध पिया है । अपने हाथ से अपना सिर काटने में मुझे दहशत होती है, आप मेरा सिर काट लें । मंत्री चकित हो गया । बादशाह को जाकर बोला ~ हेतम का सिर काटने को कोई संसार में पैदा नहीं हुआ । उपरोक्त वृत्तान्त सब सुना दिया । बादशाह भी चकित हो गया । 
शूरा झूझै खेत में, सांई सन्मुख आइ । 
शूरे को सांई मिले, तब दादू काल न खाइ ॥२१॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे शूरवीर संतजन, परमेश्‍वर के सन्मुख होकर भक्ति मार्ग में या अन्तःकरण रूपी खेत में गुण - विकारों से युद्ध करते हैं, अर्थात् उनको मारते हैं और फिर ब्रह्म में अभेद होकर मायावी काल - कर्म से मुक्त हो जाते हैं ॥२१॥ 
(शूरातन का अंग ~ श्री दादूवाणी) 
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साभार : Deepak Thakur ~ 
एक थका माँदा शिल्पकार लंबी यात्रा के बाद किसी छायादार वृक्ष के नीचे विश्राम के लिये बैठ गया । अचानक उसे सामने एक पत्थर का टुकड़ा पड़ा दिखाई दिया । उसने उस सुंदर पत्थर के टुकड़े को उठा लिया, सामने रखा और औजारों के थैले से छेनी-हथौड़ी निकालकर उसे तराशने के लिए जैसे ही पहली चोट की, पत्थर जोर से चिल्ला पड़ा, “उफ मुझे मत मारो।” दूसरी बार वह रोने लगा, “मत मारो मुझे, मत मारो… मत मारो ।
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शिल्पकार ने उस पत्थर को छोड़ दिया, अपनी पसंद का एक अन्य टुकड़ा उठाया और उसे हथौड़ी से तराशने लगा । वह टुकड़ा चुपचाप वार सहता गया और देखते ही देखते उसमे से एक एक देवी की मूर्ती उभर आई । मूर्ती वहीं पेड़ के नीचे रख वह अपनी राह पकड़ आगे चला गया । 
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कुछ वर्षों बाद उस शिल्पकार को फिर से उसी पुराने रास्ते से गुजरना पड़ा, जहाँ पिछली बार विश्राम किया था । उस स्थान पर पहुँचा तो देखा कि वहाँ उस मूर्ती की पूजा अर्चना हो रही है, जो उसने बनाई थी । भीड़ है, भजन आरती हो रही है, भक्तों की पंक्तियाँ लगीं हैं, जब उसके दर्शन का समय आया, तो पास आकर देखा कि उसकी बनाई मूर्ती का कितना सत्कार हो रहा है ! जो पत्थर का पहला टुकड़ा उसने, उसके रोने चिल्लाने पर फेंक दिया था वह भी एक ओर में पड़ा है और लोग उसके सिर पर नारियल फोड़ फोड़ कर मूर्ती पर चढ़ा रहे है ।
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शिल्पकार ने मन ही मन सोचा कि जीवन में कुछ बन पाने के लिए शुरू में अपने शिल्पकार को पहचानकर, उनका सत्कार कर, कुछ कष्ट झेल लेने से जीवन बन जाता है । बाद में सारा विश्व उनका सत्कार करता है । जो डर जाते हैं और बचकर भागना चाहते हैं वे बाद में जीवन भर कष्ट झेलते हैं, उनका सत्कार कोई नहीं करता ।
[ सुश्री स्तुति सिंह की लघु कथा - साभार उद्धृत ]

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