बुधवार, 25 दिसंबर 2013

= १२४ =


卐 सत्यराम सा 卐
शूरवीर कायर
शूरा चढ़ संग्राम को, पाछा पग क्यों देहि ?
साहिब लाजै भाजतां, धृग् जीवन दादू तेहि ॥१३॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चा शूरवीर युद्ध करने को चढ़ाई करके, फिर शत्रुओं की सेना को देखकर वापिस नहीं लौटता । वह जानता है कि अब मैं युद्ध से भागूँगा, तो मेरे राजा और सेनापति को लाज आवेगी और मेरे जीवन को भी लोग धिक्कार देंगे । इसी प्रकार सच्चा शूरवीर भक्त संसार से प्रीति हटाकर परमेश्‍वर की अनन्य भक्ति धारण करता है । फिऱ वह मायावी पदार्थों की ओर नहीं जाता है ॥१३॥ 
तृणं द्रव्यं विरक्तस्य शूरस्य जीवनं तृणम् । 
ब्रह्मचारी तृणं नारी, जगत्तृणं च ज्ञानिनः ॥
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सेवक शूरा राम का, सोई कहेगा राम ।
दादू सूर सन्मुख रहै, नहिं कायर का काम ॥१४॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! राम का सच्चा शूरवीर भक्त है, वही राम का निष्काम स्मरण करेगा । मन इन्द्रियों को अन्तर्मुख करने वाला शूरवीर साधक ही राम के सन्मुख रहेगा । और सांसारिक सकामी पुरुष राम का निष्काम स्मरण, कभी भी नहीं कर पायेंगे ॥१४॥
कबीर भक्ति दुहेली राम की, नहीं काइर का काम । 
शीस उतारैं हाथ करि, सो लेसी हरि नाम ॥
सुन्दर तन मन आपनो, आवै प्रभु के काम । 
रण में तैं भाजै नहीं, करै न लोन हराम ॥
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कायर काम न आवही, यहु शूरे का खेत ।
तन मन सौंपै राम को, दादू शीश सहेत ॥१५॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! रण भूमि का मैदान सच्चे शूरवीरों का युद्ध स्थल है । यहॉं कायर पुरुष नहीं रुकेंगे । अर्थात् इसी प्रकार विषयी, अहंकारी, मनुष्य इस साधना क्षेत्र में काम नहीं आवेंगे । किन्तु जो साधक आपा सहित तन - मन प्रभु के अर्पण क रता है, उसी को धन्य है ॥१५॥
ठाकुर ग्रह में जे मरै, तो नहि यश को पाइ । 
जाइ युद्ध में तन तजै, तो हरि बलि बलि जाइ ॥
(शूरातन का अंग ~ श्री दादूवाणी)
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आज का शुद्ध विचार ~ 
"जब महाराज सगर को बहुत दिनों तक अपने पुत्रों की सूचना नहीं मिली तो उन्होंने अपने तेजस्वी पौत्र अंशुमान को अपने पुत्रों तथा घोड़े का पता लगाने के लिये आदेश दिया। वीर अंशुमान शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर उसी मार्ग से पाताल की ओर चल पड़ा जिसे उसके चाचाओं ने बनाया था। मार्ग में जो भी पूजनीय ऋषि मुनि मिले उनका यथोचित सम्मान करके अपने लक्ष्य के विषय में पूछता हुआ उस स्थान तक पहुँच गया जहाँ पर उसके चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों की राख पड़ी थी और पास ही यज्ञ का घोड़ा चर रहा था।
अपने चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों को देखकर उसे बहुत दुःख हुआ। उसने उनका तर्पण करने के लिये जलाशय की खोज की किन्तु उसे कहीं जलाशय दिखाई नहीं पड़ा। तभी उसकी दृष्टि अपने चाचाओं के मामा गरुड़ पर पड़ी। उन्हें सादर प्रणाम करके अंशुमान ने पूछा कि बाबाजी ! मैं इनका तर्पण करना चाहता हूँ। पास में यदि कोई सरोवर हो तो कृपा करके उसका पता बताइये। यदि आप इनकी मृत्यु के विषय में कुछ जानते हैं तो वह भी मुझे बताने की कृपा करें।
गरुड़ जी ने बताया कि किस प्रकार उसके चाचाओं ने कपिल मुनि के साथ उद्दण्ड व्यवहार किया था जिसके कारण कपिल मुनि ने उन सबको भस्म कर दिया। इसके पश्चात् गरुड जी ने अंशुमान से कहा कि ये सब अलौकिक शक्ति वाले दिव्य पुरुष के द्वारा भस्म किये गये हैं अतः लौकिक जल से तर्पण करने से इनका उद्धार नहीं होगा, केवल हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के जल से ही तर्पण करने पर इनका उद्धार सम्भव है।
अब तुम घोड़े को लेकर वापस चले जाओ जिससे कि तुम्हारे पितामह का यज्ञ पूर्ण हो सके। गरुड़ जी की आज्ञानुसार अंशुमान वापस अयोध्या पहुँचे और अपने पितामह को सारा वृतान्त सुनाया। महाराज सगर ने दुःखी मन से यज्ञ पूरा किया। वे अपने पुत्रों के उद्धार करने के लिये गंगा को पृथ्वी पर लाना चाहते थे पर ऐसा करने के लिये उन्हें कोई भी युक्ति न सूझी।"

थोड़ा रुककर ऋषि विश्वामित्र कहा, "महाराज सगर के देहान्त के पश्चात् अंशुमान बड़ी न्यायप्रियता के साथ शासन करने लगे। अंशुमान के परम प्रतापी पुत्र दिलीप हुये। दिलीप के वयस्क हो जाने पर अंशुमान दिलीप को राज्य का भार सौंप कर हिमालय की कन्दराओं में जाकर गंगा को प्रसन्न करने के लिये तपस्या करने लगे किन्तु उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हो पाई और उनका स्वर्गवास हो गया।
इधर जब राजा दिलीप का धर्मनिष्ठ पुत्र भगीरथ बड़ा हुआ तो उसे राज्य का भार सौंपकर दिलीप भी गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये तपस्या करने चले गये। पर उन्हें भी मनवांछित फल नहीं मिला। भगीरथ बड़े प्रजावत्सल नरेश थे किन्तु उनकी कोई सन्तान नहीं हुई। इस पर वे अपने राज्य का भार मन्त्रियों को सौंपकर स्वयं गंगावतरण के लिये गोकर्ण नामक तीर्थ पर जाकर कठोर तपस्या करने लगे।
उनकी अभूतपूर्व तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा। भगीरथ ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिये कि सगर के पुत्रों को मेरे प्रयत्नों से गंगा का जल प्राप्त हो जिससे कि उनका उद्धार हो सके। इसके अतिरिक्त मुझे सन्तान प्राप्ति का भी वर दीजिये ताकि इक्ष्वाकु वंश नष्ट न हो।
ब्रह्मा जी ने कहा कि सन्तान का तेरा मनोरथ शीघ्र ही पूर्ण होगा, किन्तु तुम्हारे माँगे गये प्रथम वरदान को देने में कठिनाई यह है कि जब गंगा जी वेग के साथ पृथ्वी पर अवतरित होंगीं तो उनके वेग को पृथ्वी संभाल नहीं सकेगी। गंगा जी के वेग को संभालने की क्षमता महादेव जी के अतिरिक्त किसी में भी नहीं है। इसके लिये तुम्हें महादेव जी को प्रसन्न करना होगा। इतना कह कर ब्रह्मा जी अपने लोक को चले गये।

"भगीरथ ने साहस नहीं छोड़ा। वे एक वर्ष तक पैर के अँगूठे के सहारे खड़े होकर महादेव जी की तपस्या करते रहे। केवल वायु के अतिरिक्त उन्होंने किसी अन्य वस्तु का भक्षण नहीं किया। अन्त में इस महान भक्ति से प्रसन्न होकर महादेव जी ने भगीरथ को दर्शन देकर कहा कि हे भक्तश्रेष्ठ ! हम तेरी मनोकामना पूरी करने के लिये गंगा जी को अपने मस्तक पर धारण करेंगे।
इसकी सूचना पाकर विवश होकर गंगा जी को सुरलोक का परित्याग करना पड़ा। उस समय वे सुरलोक से कहीं जाना नहीं चाहती थीं, इसलिये वे यह विचार करके कि मैं अपने प्रचण्ड वेग से शिव जी को बहा कर पाताल लोक ले जाऊँगी वे भयानक वेग से शिव जी के सिर पर अवतरित हुईं।
गंगा के इस वेगपूर्ण अवतरण से उनका अहंकार शिव जी से छुपा न रहा। महादेव जी ने गंगा की वेगवती धाराओं को अपने जटाजूट में उलझा लिया। गंगा जी अपने समस्त प्रयत्नों के बाद भी महादेव जी के जटाओं से बाहर न निकल सकीं। गंगा जी को इस प्रकार शिव जी की जटाओं में विलीन होते देख भगीरथ ने फिर शंकर जी की तपस्या की।
भगीरथ के इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने गंगा जी को हिमालय पर्वत पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ा। छूटते ही गंगा जी सात धाराओं में बँट गईं। गंगा जी की तीन धाराएँ ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व की ओर प्रवाहित हुईं। सुचक्षु, सीता और सिन्धु नाम की तीन धाराएँ पश्चिम की ओर बहीं और सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे पीछे चली।
जिधर जिधर भगीरथ जाते थे, उधर उधर ही गंगा जी जाती थीं। स्थान स्थान पर देव, यक्ष, किन्नर, ऋषि-मुनि आदि उनके स्वागत के लिये एकत्रित हो रहे थे। जो भी उस जल का स्पर्श करता था, भव-बाधाओं से मुक्त हो जाता था। चलते चलते गंगा जी उस स्थान पर पहुँचीं जहाँ ऋषि जह्नु यज्ञ कर रहे थे। गंगा जी अपने वेग से उनके यज्ञशाला को सम्पूर्ण सामग्री के साथ बहाकर ले जाने लगीं।
इससे ऋषि को बहुत क्रोध आया और उन्होंने क्रुद्ध होकर गंगा का सारा जल पी लिया। यह देख कर समस्त ऋषि मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ और वे गंगा जी को मुक्त करने के लिये उनकी स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर जह्नु ऋषि ने गंगा जी को अपने कानों से निकाल दिया और उन्हें अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया।
तब से गंगा जाह्नवी कहलाने लगीँ। इसके पश्चात् वे भगीरथ के पीछे चलते चलते समुद्र तक पहुँच गईं और वहाँ से सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिये रसातल में चली गईं। उनके जल के स्पर्श से भस्मीभूत हुये सगर के पुत्र निष्पाप होकर स्वर्ग गये। उस दिन से गंगा के तीन नाम हुये, त्रिपथगा, जाह्नवी और भागीरथी।

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