शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

आज्ञा मांहीं बैसे उठे ८/३२-३४

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*निष्कामी पतिव्रता का अंग ८/३२.३*
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*आज्ञा मांहैं बैसै ऊठै, आज्ञा आवै जाइ ।*
*आज्ञा मांहैं लेवै देवै, आज्ञा पहरै खाइ ॥३२॥*
*आज्ञा मांही बाहर भीतर, आज्ञा रहै समाइ ।*
*आज्ञा मांही तन मन राखै, दादू रहै ल्यौ लाइ ॥३३॥*
उक्त ३२ - ३३ की साखी पर दृष्टांत बताने वाला एक कवित्त दिया जाता है देखिये - 
बैठे निराणे स्वामी उठे है आमेर से जु,
आये सीकरी से अरु गये उत जानिये ।
आल्हण की कामरी लिई है गुरु आज्ञा सुन,
झरी जल दिया पाय साची मन अनिये ।
चोला गुजरात से आया सो पहना आज्ञा मान,
पाया परसाद सु सिरौंज हु का मानिये ।
बाहर गुफा से आये भीतर उथों ही गये,
स्वामी ऐसे रहे सदा और सह ठानिये ॥४॥
दृष्टांत - 
*"बैठे हें निराणे स्वामी"* दादूजी की नारायणा नरेश नारायण सिंह ने मोरड़ा से बुलवाया और रघुनाथ मन्दिर में जो किले के द्वार पर ही था उसमें ठहराया किन्तु दादूजी वहाँ भजन में विघ्न देखकर त्रिपोलिया पर पधार गये । वहाँ राजा सत्संग के लिए जाता रहा और पू़छता रहे आप आज्ञा दें वहाँ ही धाम बनवा दिया जाय । दादूजी कहते थे प्रभु की आज्ञा होगी वहां बनवा देना । 
त्रिपोलिया निवास के आठवें दिन सत्संग सभा में दादूजी के सामने सहसा शेष नाग प्रकट हो गये और दादूजी को प्रणाम करके अपने फण से उठने का संकेत किया । तब दादूजी उठकर नागराज के पीछे - २ चले और राजादि सब सत्संगी भी दादूजी के पीछे - पीछे चले । नागराज ने सरोवर के पश्‍चिम की पाल पार खेजड़ा के नीचे फण मार के संकेत किया यहां विराजिये । 
दादू समझ गये और कहा - आपके द्वारा परमेश्वर ने मुझे यहाँ बैठने की आज्ञा दी है । अतः यहां ही बैठ जाता हूँ । फिर वहाँ दादूजी बैठ गये और राजा को आज्ञा दे दी, यहाँ धाम बना दो । राजा ने वहाँ धाम बनवा दिया । वही दादूजी का मुख्य धाम माना जाता है । हरि आज्ञा से वहां बैठे थे । 'यही उक्त बैठे है' निराण आय का आशय है ।
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*उठे हैं आमेर से जु* - दादूजी ने आमेर से विचरने का विचार किया तब आमेर नरेश मानसिंह ने पू़छा - आप कहाँ रहेंगे ? दादूजी - नारायण सरोवर पर । मानसिंह - आप तीर्थ पर रहना चाहें तब तो पास ही गलता पर विराजिये । दादूजी - हम तो प्रभु की आज्ञानुसार चलते हैं । अतः अब प्रभु को आज्ञा यहां से जाने की ही है । इससे सूचित होता है कि प्रभु की आज्ञा से ही आमेर से उठे थे ।
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*आये सीकरी से अरु गये उत जानिये* - जब सूर्यसिंह खींची राजा भक्तदास के भेजने से दादूजी को सीकरी ले जाने को आया और दादूजी से प्रार्थना की । दादूजी ने कहा - हमें बादशाह से क्या काम है ? हम क्यों जायें ? सूर्यसिंह ने कहा - आप नहीं चलेंगे तो मैं अन्न जल छोड़कर यहां ही तन त्याग दूंगा । दादूजी ने कहा - अब तो तुम राजभवन को जाओ प्रातः जैसी प्रभु की आज्ञा होगी वैसा ही होगा । फिर रात्रि को दादूजी ने ध्यान में प्रभु से पू़छा तो प्रभु ने कहा - तुम अवश्य जाओ । तुम्हारे जाने से परोपकार ही होगा । अकबर बादशाह को उपदेश देकर गो वध बन्द कराओ । यह कार्य तुम्हारे निमित्त से ही होगा । उक्त प्रभु आज्ञा से ही सीकरी गये थे ।
सीकरी में आमेर नरेश ने प्रार्थना की थी - भगवन् ! कु़छ दिन यहाँ और विराजें तो बहुत अच्छा हो । दादूजी ने कहा - अब यहाँ ठहरने की प्रभु की आज्ञा नहीं है । इस कथन से प्रभु की आज्ञा होने से ही दादूजी सीकर से लौटे थे ।
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*आल्हण की कामरी लिई है गुरु आज्ञा सुन,* 
*झरी जल दिया पाय साची मन आनिये ।* 
आल्हाण पादूग्राम के पास के कैरे ग्राम में रहते थे और दादूजी पर उनकी अति श्रद्धा थी । उन्होंने दादूजी के लिए सुन्दर कम्बली बनवाई थी और उनका संकल्प था जब दादूजी का दर्शन होगा तब यह कम्बली उनके भेंट करुंगा । किन्तु दादूजी का दर्शन किस समय हो जाय, इससे उक्त कम्बली को अपने शिर पर ही रखते थे । 
जब उनको ज्ञात हुआ कि दादूजी आज इधर आयेंगे तो कम्बली लेकर दादूजी के सामने गया । दर्शन होते ही प्रणाम करके कम्बली भेंट करके प्रार्थना की इसको आप धारण करें । उसकी सुन्दरता देख दादूजी ने कहा - इतनी सुन्दर कम्बली का हम क्या करेंगे ? हम तो साधारण वस्त्र रखते हैं यह किसी अन्य संत को दे दो । यह सुनते ही आल्हण भक्त को अति दुःख हुआ । 
उसके प्राण तो नहीं निकले पर दुःख में कोई कमी नहीं रही । भक्त की उक्त स्थिति देखकर तत्काल परमात्मा ने दादूजी को आज्ञा दी कि शीघ्र ही आल्हाण की कम्बली स्वीकार करके धारण करो और इसे प्रसाद दो । दादूजी ने अपने हृदय आकाश में यह प्रभु की आज्ञा सुनते ही आल्हण की कम्बली धारण करके उसे अपने जल के पात्र का जल ही प्रसाद रूप में प्रदान किया ।
अन्य प्रसाद उस समय नहीं था । 
कम्बली धारण करते ही आल्हण का सब दुःख तत्काल नष्ट होकर परमानन्द को प्राप्त हो गया और जलपात्र का प्रसाद रूप जलपान करते ही उसकी दिव्य दृष्टि हो गई थी । उक्त कम्बली लेना तथा प्रसाद देना रूप दोनों कार्य ही दादूजी ने प्रभु की आज्ञा से ही किये थे । आल्हण भक्त का विशेष विवरण श्री दादूचरितामृत के ८७ वें बिन्दु में पृ० ८५१ से ८८१ तक देखें ।
*चोला गुजरात से आया सो पहना आज्ञा मान -* 
तेजानन्दजी गुजरात देश के अपने ग्राम नृसिंहपुरा में बणजारों से दादूजी का - इनमें क्या लीजे क्या दीजे, जन्म अमोलक छीजे ॥टेक॥ 
भजन सुन अति प्रभावित हुये थे । उक्त भजन दादूवाणी में २९ नं. का और दो पाद का है । फिर बणजारों से पू़छा - यह वाणी किनकी है ? बणजारों ने कहा - दादूजी की है । तेजानंद जी - वे कहाँ हैं ? बणजारे - राजस्थान के आमेर नगर में । तेजानन्दजी - मैं उनके दर्शन करने जाऊंगा । 
बणजारे - हम आप को उनके लिये एक चोला देंगे वह भी लेते जाना और दादूजी से कहना इसे आप ही पहनें । तेजानन्द जी ने कहा - अवश्य ले जाऊंगा । बणजारों ने सुन्दर चोला बनवाकर दे दिया । तेजानन्दजी चोला लेकर अपने परिवार के सहित आमेर आये और चोला भेंट करके कहा - जिनसे मैंने आपका भजन इन में क्या लीजे क्या दीजे सुना था उन बणजारों ने आपके लिए यह चोला भेजा है और कहा है - इसे आप ही पहनें । 
दादूजी ने कहा - ऐसे सुन्दर चोले का हम क्या करेंगे ? किसी अन्य संत को दे दो । यह सुनते ही तेजानन्दजी को अति दुःख हुआ । उन्होंने सोचा - उन लोगों ने अति प्रेम से बनवाकर भेजा है और मै कितनी दूर से लाया हूँ । फिर भी स्वामीजी स्वीकार नहीं करते । उनके दुःख को देखकर प्रभु ने दादुजी के हृदय में आवाज दी कि चोला शीघ्र स्वीकार करके धारण करो । तब दादूजी ने प्रभु की आज्ञा मान चोला धारण कर लिया था ।
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* पाया परसाद सु सिरौंज हु का मानिये* दादूजी जब आमेर में निवास कर रहे थे तह मोहन दफतरी मालवा के सिरौंज ग्राम में ठहरे हुये थे । उन्हीं दिनों में मोहनजी दफतरी का जन्म दिन आ गया था । अतः भक्तों ने उस दिन विशेष उत्सव मनाया था । भोजन भी विविध प्रकार के बनाये थे । जब भोजन का थाल मोहनजी दफतरी के सामने रखा गया तब उनके मन में संकल्प हुआ । ये भोजन ब्रह्मरूप गुरुदादूजी को जिमाकर ही जीमना चाहिये । 
इसलिये मोहनजी ने अपनी योग शक्ति से उस थाल को आमेर में दादूजी के पास पहुँचा दिया । इधर आमेर में दादूजी भोजन करने को ही विराजे थे और टीलाजी भोजन की थाली लाने गये थे उसी समय दादूजी के सामने चौकी पर सिरौंज का थाल आकर स्थित हो गया । 
टीलाजी भोजन की थाली लेकर आये तो आगे चौकी पर विविध भोजनों से परिपूर्ण थाल देखकर पू़छा - भगवन् ! यह थाल कौन लाया है ? दादूजी ने कहा - यह मालवा देश के सिरौंज नगर से मोहन दफतरी ने भेजा है । किन्तु गरिष्ठ होने से मेरे पाने योग्य तो नहीं है । ऐसा संकल्प होते ही प्रभु ने आज्ञा दी इसे पावो । फिर दादूजी ने परमात्मा के परिचय भोग लगाया और स्वयं ने पाया तथा आश्रम में उस समय जो थे उन सबको प्रसाद देकर दादूजी ने पीछा ही सिरौंज लौटा दिया । उक्त भोजन का थाल लाने वाले भक्त मोहनजी के पास ही बैठे थे । उन्होनें देखा भोजन का थाल अदृश्य हो गया था और सहसा पुनः उसी स्थान में प्रकट हो गया है । 
यह आश्चर्य देखकर मोहनजी से पू़छा तब मोहनजी ने उक्त कथा सुना दी और कहा - यह अब दादूजी का प्रसाद हो गया है । स्वयं ने पाया और सब को प्रसाद दिया । उक्त प्रसाद भी दादूजी ने परमात्मा की आज्ञा से ही पाया था ।
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*बाहर गुफा से आये भीतर उथों ही गये*, 
*स्वामी ऐसे रहे सदा और सह ठानिये* 
- रम्भामाता सिन्ध देश के ठट्ठानगर से दादूजी के दर्शन करने आमेर आई, तब दादूजी गुफा में थे । वह दादूजी के दर्शनार्थ अति व्याकुल थी, अतःगुफा के द्वार पर जाकर खड़ी हो गई । उसकी स्थिति को देखकर अन्तर्यामी ईश्वर ने दादूजी को गुफा का द्वार खोलने की आज्ञा दी तब दादूजी ने गुफा के कपाट खोले तो एक सिन्धी माता को देखा । 
उसे दर्शन देने के पश्चात प्रभु ने भजन में बैठने की आज्ञा दी तब पुनः कपाट बन्द करके भजन करने लगे थे । उक्त प्रकार ही दादूजी परमात्मा की आज्ञा के अनुसार ही रहे थे और अन्त में प्रभु की आज्ञा मानकर धरातल को त्यागकर स्वरूप को प्राप्त हुये थे । उक्त रम्भा माँ का विशेष विवरण श्री दादूचरित्तामृत के बिन्दु १७ पृष्ठ ३३६ से ३३९ में देखें ।
(क्रमशः)

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