शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(अ.दि.- ५/६)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
अष्टम दिन ~ 
आदि जिन्हों में अति अनुरागा, 
वे हि तपावत अब जिमि आगा ।
उदर रोग सखि ! मैंने जाना, 
नहिं, यह तो वैराग्य बखाना ॥५॥ 
आं वृ. - ‘‘प्रथम जिन्हों में विशेष प्रेम था, वे ही अब अग्नि के समान तपाते हैं। बता वे कौन हैं और क्यों तपाते हैं।”
वां वृ. - ‘‘ये तो मेवा, मावा और मैदा आदि के गरिष्ठ पदार्थों के भोजन हैं। पहले अग्नि अच्छी होती है तब तो खाने का बड़ा प्रेम रहता है किन्तु जब पेट की बीमारियां हो जाती हैं तब उन्हें देखकर दु:ख ही होता है।” 
आं वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो वैराग्य है। जब तक वैराग्य हृदय में नहिं आया था, तब तक सांसारिक पदार्थों में बड़ा प्रेम था; किंतु अब वैराग्य होने पर उनसे दु:ख ही होता है। यही तो वैराग्य का मुख चिन्ह है। तुझे भी जब वैराग्य होगा, तो तेरी भी यही दशा अपने आप हो जायगी।” 
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एक पुरुष घर ऐसा आया, उसने सबसे चित्त हटाया । 
है नृप मानव में पहचानी, नहिं, यह तो वैराग्य सयानी ॥६॥ 
आं वृ. - ‘‘घर में एक ऐसा पुरुष आया है, उसने सबसे चित्त हटा दिया है। बता वह कौन है?” 
वां वृ. - ‘‘राज-पुरुष होगा।” 
आं वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो वैराग्य है। वैराग्य होने पर तेरा मन भी सब से हटकर, एक भगवत् स्वरूप में ही लग जायेगा।” 
(क्रमशः) 

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