गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(अ.दि.- १/४)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
अष्टम दिन ~ 
कवि -
वाह्य वृत्ति दिन अष्टमें, सत्वर कर घर काम । 
पहुंची आंतर धाम में, हिय में सुमिरत राम ॥१॥ 
नम्र भाव से प्रणति कर, बैठी आंतर पास । 
आंतर भी देने लगी, शिक्षा सह उल्लास ॥२॥ 
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एक पिता के दो सुत जाये, 
प्रेम अशुभ से शुभ नहिं भाये ।
पिता ज्ञात हो परम अनारी, 
मोह विवेक चित्त है प्यारी ॥३॥ 
आं वृ. - ‘‘एक पिता के दो पुत्र हैं। एक कुमार्गमागी है, दूसरा सज्जन है। पिता कुमार्गी से प्रेम करता है और सज्जन से उपराम रहता है। बता वे कौन हैं?” 
वां वृ. - ‘‘वह पिता महा मूर्ख होगा !” 
आं वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो परम चतुर मन है। महा मोह और विवेक पुत्र हैं। महा मोह से मन का प्रेम है तब ही, मन को बारंबार नाना दु:ख उठाने पड़ते हैं। तू महा मोह से कभी भी प्रेम न करना। विवेक को ही अपनाना। सत्य और असत्य को ठीक-ठीक समझने का नाम ही विवेक है। विवेक से सत्य ब्रह्म और असत्य संसार का यथार्थ ज्ञान होता है। तू विवेक को अपनायेगी तो आनन्द हो जायगा।” 
एक नगर में दो नृप देखे, 
उनमें युद्ध सदा ही पेखे । 
सबल दोउ भुवि हित संग्रामा, 
मोह विवेक हृदय जिन धामा ॥४॥ 
आं वृ. - ‘‘एक नगर में दो राजा हैं, उनमें सदा ही युद्ध होता रहता है। बता वे कौन है?” 
वां वृ. - ‘‘दोनों शक्तिशाली होंगे और पृथ्वी के लिये दोनों में युद्ध होते रहते होंगे।” 
आं वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! वे तो हृदय नगर में रहने वाले मोह और विवेक हैं। उनका युद्ध सदा चलता ही रहता है। तू यदि इस महा संग्राम से बचना चाहती है तो सदा संतों का संग किया कर और उनके उपदेशों को अपने हृदय में स्थान दिया कर।” 
(क्रमशः)

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