बुधवार, 18 दिसंबर 2013

दादू रीझे राम पर ८/२०

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*निष्कामी पतिव्रता का अंग ८/२०*
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*दादू रीझे राम पर, अनत न रीझे मन्न ।* 
* मीठा भावे एक रस, दादू सोई जन्न ॥२०॥* 
प्रसंग कथा - 
गुरु दादू आमेर में, तहां गये वाजीद । 
फूल सराया देख के, ये सब भाया निन्द ॥१॥ 
एक दिन वाजीद आमेर नरेश मानसिंह के बाग में गये थे । वहां उन्होंने एक बहुत बडा गैंदे का फूल देखा और उसे दादूजी को दिखाने के लिये तोड लाये । फिर गुरुजी को प्रणाम करके वह पुष्प दिखाकर बोले - भगवन् ! देखिये यह पुष्प कितना सुन्दर है । तब दादूजी ने उक्त २० की साखी सुनाकर कहा - वाजीद ! अभी तक तुम इस मायिक पदार्थ की सुन्दरता पर ही मोहित हो रहे हो क्या ? इसके बनाने वाले ईश्वर की सुन्दरता कितनी अनन्त है उसे नहीं देखते ? हम तो उस प्रभु की सुन्दरता पर ही रीझते हैं । यह सुनकर वाजीद ने कहा - गुरुदेव आपका कथन यथार्थ है, अब मैं सब में ईश्वर की सुन्दरता देखने का ही सदा अभ्यास करुंगा । वास्तव में मायिक पदार्थ प्रसंशा के योग्य नहीं हैं निन्द्य ही हैं । 
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*दादू - मेरे हृदय हरि बसे, दूजा नांही और ।* 
*कहो कहां धौं राखिये, नहीं आन को ठौर ॥२१॥* 
दृष्टांत - 
बीबी वसे राबिया, मुहम्मद कहा जनाय । 
राख हृदय दोस्त हमें, दूजा नहीं समाय ॥२॥ 
वसरा नगर में रहने वाली ईश्वर की परम भक्ता रबिया बाई को एक समय मुहम्मद साहब ने कहा - तुम हमको अपने हृदय में दोस्त रूप में रखो । तब राबिया बाई ने कहा मेरे हृदय में दूसरे को रखने के लिये स्थान नहीं है । कारण ? द्वैत तो भय प्रदाता ही होता है । यह उक्त २१ की साखी में कहा है । संत प्रभु बिना अन्य को अपने हृदय में नहीं रखते । तब उनको परमानन्द प्राप्त होता है ।
(क्रमशः)

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