#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
भ्रम विध्वंस
ना घर रह्या न वन गया, ना कुछ किया क्लेश ।
दादू मन ही मन मिल्या, सतगुरु के उपदेश ॥३३॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वे मुक्त - पुरुष, घर कहिए प्रवृत्ति मार्ग और वन कहिए निवृत्ति मार्ग, इन दोनों के अहंकार से रहित होकर और न किसी प्रकार का बहिरंग तप - जप आदि का क्लेश ही उठाया । किन्तु केवल सतगुरु के ज्ञान उपदेश के द्वारा ही व्यष्टि - चैतन्य रूप मन, समष्टि - चैतन्य रूप ब्रह्म से अभेद हो गया ॥३३॥
.
काहे दादू घर रहै, काहे वन - खंड जाइ ।
घर वन रहिता राम है, ताही सौं ल्यौ लाइ ॥३४॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मवेत्ता संत घऱ और वन, इन दोनों के अहंकार से रहित होकर ब्रह्मस्वरूप राम में लय लगाते हैं । इसी प्रकार उत्तम जिज्ञासु पुरुष, घर और वन का, या प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के अहंकार से रहित होकर आत्मस्वरूप राम में लय लगावें ॥३४॥
.
दादू जिन प्राणी कर जानिया, घर वन एक समान ।
घर मांही वन ज्यों रहै, सोई साधु सुजान ॥३५॥
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि जिन जिज्ञासुओं ने घर और वन इन दोनों को विचार द्वारा बराबर जानकर, अर्थात् घर कहिए प्रवृत्ति मार्ग और वन कहिए निवृत्ति मार्ग, इन दोनों के अहंकार को त्यागकर घर में ही, कहिए प्रवृत्ति मार्ग में ही, ज्ञान द्वारा निवृत्ति कहिये अनासक्त होकर, राम से लय लगाते हैं, वही पुरुष सुजान नाम चतुर हैं ॥३५॥
.
सब जग मांही एकला, देह निरंतर वास ।
दादू कारण राम के, घर वन मांहि उदास ॥३६॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सम्पूर्ण संसार की भोग - वासनाओं से रहित होकर, शुद्ध अन्तःकरण में विरही जन, राम के कारणै, घर प्रवृत्ति मार्ग और वन निवृत्ति मार्ग, इन दोनों के अहंकार से रहित होकर नाम - स्मरण में लय लगाते हैं ॥३६॥
आदि अन्त जाको नहिं पावै ।
सोही पूरण देस कहावै ॥
सोही पूरण सबमें लहिये ।
सोही देव सकल सुख पइये ॥
.
घर वन मांही सुख नहीं, सुख है सांई पास ।
दादू तासौं मन मिल्या, इनतैं भया उदास ॥३७॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! घर कहिए, प्रवृत्ति मार्ग और वन कहिए निवृत्ति मार्ग, इन दोनों में ही सुख नहीं है । सुख तो केवल परमेश्वर के नाम - स्मरण में ही है । इसीलिए विरहीजन भक्त घर - वन में अहंकार को छोड़कर परमेश्वर के नाम स्मरण में अपने मन को लगाते हैं ॥३७॥
.
ना घर भला न वन भला, जहॉं नहीं निज नांव ।
दादू उनमन मन रहै, भला तो सोई ठांव ॥३८॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! न तो प्रवृत्ति - मार्ग ही श्रेष्ठ है और निवृत्ति - मार्ग ही श्रेष्ठ है । प्रवृत्ति कहिए ग्रहस्थ आश्रम में रहकर जिनके हृदय में परमेश्वर का नाम - स्मरण नहीं है, और निवृत्ति कहिए वन में रहकर जिसने परमेश्वर का नाम - स्मरण नहीं किया, तो वह दोनों ही जगह किस काम की हैं ? वही स्थान ठीक है, चाहे निवृत्ति हो या प्रवृत्ति हो, उनमन कहिए जिनका मन नाम - स्मरण रूप ऊँची दशा में स्थिर है ॥३८॥
.
बैरागी वन में बसै, घरबारी घर मांहि ।
राम निराला रह गया, दादू इनमें नांहि ॥३९॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वैराग्यमान तो वन में बसकर वन के अहंकार में बंधा है । हमें क्या लेना है दुनिया से ? हम तो कंदमूल, फल - पत्ती खाते हैं । और घरबारी गृहस्थी घर में अध्यास को लिये बैठे हैं और कहते हैं, हम तो कबीर साहब की तरह हैं । ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज फरमाते हैं कि राम के सच्चे निष्पक्ष भक्त तो इन दोनों से ही अलग हैं । वे राम में ही रत्त रहते हैं ॥३९॥
(श्री दादू वाणी ~ मध्य का अंग)
==================
साभार : Ritesh Srivastava ~
मन की शांति के लिए इंसान कहाँ कहाँ नहीं भटकता लेकिन यदि हम अपने मन को ही नियंत्रित नहीं कर सके तो फिर हमारी शांति की तलाश व्यर्थ है मन को वश मे रखकर दृढ़ इच्छाशक्ति के के साथ पूर्ण निष्ठा व एकाग्रचित्तता से हम शांति पाने का प्रयास करेंगे तो अवश्य हमें इसमें सफलता मिलेगी ॥हरी ॐ॥
श्यामगढ़ मे रहने वाले एक सज्जन गृहस्थ होकर भी साधुओं की तरह जीवन जीते थे सभी लोग उनकी बड़ी प्रशंसा करते थे और लोग उनका संत की तरह सम्मान देते थे एक दिन उन सज्जन ने अपने गुरु के पास जाकर कहा, गुरुजी अब मैं इस दुनियादारी से पूरी तरह विरक्त होना चाहता हूँ मेरे मन में संन्यास लेने की इच्छा है उनकी बात सुनकर गुरुजी ने कहा, जब सब कुछ ठीक चल रहा है और जब तुम्हारे व्यवहार में ही संन्यास है तो वस्त्र संन्यास का आग्रह क्यों ?
सज्जन ने जवाब दिया मैं शांति की तलाश में हूँ संन्यास से मेरे मन को शांति मिलेगी घर परिवार के बीच रहकर कभी कभी सब कुछ गड़बड़ा जाता है गुरुजी ने कहाँ चलो मैं तुम्हें संन्यास दिला दूँगा पर मेरी कुछ शर्तें है भीतर झाडू लगाकर आना शांति कहाँ मिलती है इसको समझना विवेक को अपने साथ लाना और प्रेम को सदैव बनाए रखना क्या तुम ऐसा कर सकोगे गुरुजी के मुख से इशारों इशारो में अपने घर के तीनों सदस्यों बेटे का नाम विवेक बेटी का नाम शांति और पत्नी नाम प्रेम.
सुनकर वह सज्जन चौंक गए उन्होंने ध्यान से गुरुजी की बात का चिंतन किया तो उनकी समझ मे आ गया कि यदि चित्त भटकना बंद नहीं हुआ तो चाहे घर मे रहो या संन्यासी बनकर किसी आश्रम में मन में अशांति बनी ही रहेगी मूल कारण भीतर है बाहर से सिर्फ सहायताएँ ही मिलती है यह चिंतन करने के बाद सज्जन जैसे थे वैसे ही वापस अपने घर की और चल दिए......
॥ वन्दे मातरम् ॥
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें