मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

= १०८ =


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卐 सत्यराम सा 卐
साधु नदी जल राम रस, तहॉं पखाले अंग ।
दादू निर्मल मल गया, साधु जन के संग ॥११॥
ब्रह्मंड हंड चढ़ाइया, मानौं ऊरे अन ।
कोई गुरु कृपा तैं ऊबरे, दादू साधू जन ॥११क॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संतजन जो हैं, उनका सत्संग ही मानो नदी है और उस सत्संग मे राम - नाम, भक्ति - वैराग्य - ज्ञान रूपी ही मानो जल भरा है । वहॉं स्नान करने से अन्तःकरण के पाप रूप मल निवृत्त होकर निर्मल होते हैं । ऐसे संतजनों के सत्संग में रहकर अपना कल्याण कर ॥११/११क॥
ज्ञानी दर्शन साध के, सब तीरथ फल होइ । 
अजहूँ महिमा अगम है, बूझै बिरला कोइ ॥
साधु तीरथ ज्ञान जल, मन मंजन कर न्हाइ । 
‘रज्जब’ पाप जुगन के, निश्‍चै सर्व विलाइ ॥
तस्कर सुत गयो तेल को, हरिजन हाटों मांहि । 
राघो चरचा यों सुनी, सुर के छाया नांहि ॥
दृष्टान्त ~ एक राजा के यहॉं मीणों ने चोरी करने का विचार किया । रात को राजा के महलों में पहुंच गये । जितना चला, उतना माल उठा लाये और लाकर जमीन में दबा दिया कि कुछ दिन के बाद निकालेंगे । पुलिस ने खोज पड़ताल की । कुछ पता नहीं चला । 
एक दूती, राजा के यहॉं आई और बोली, ‘‘मैं चोरी का पता लगा दूँगी ।’’ एक शेर के दांत उखड़वाये, छः भुजा काठ की बनवाई । दूती ने अपना अष्टभुजा दुर्गा का रूप बना कर शेर पर सवारी करके मीणों के मोहल्ले में आधी रात में आ गई । आवाज लगाई - ‘‘दुष्टो ! अब राजा को सपना देकर तुम सबको फांसी लगवाऊंगी ।’’ 
आस - पास के सोने वाले सब लोग जाग उठे, देखा कि साक्षात्कार दुर्गा है । बोले ~ ‘‘हे माता ! क्षमा कर ।’’ दुर्गा ~ ‘‘दुष्टो ! तुमने जो राजा के चोरी की, उसकी चौथ अब तक मेरे नहीं चढ़ाई ।’’ मीणे ~ ‘‘हे माता ! सवेरे ही चौथा हिस्सा तेरे निमित्त लगा देंगे ।’’ 
एक मीणे के लड़के ने आकर देखा कि इसके छाया है । अपने पिता से बोला ~ ‘‘पिताजी ! यह दुर्गा नहीं है, यह कोई छल है । मैंने एक साधु से सुना था कि देवता के छाया नहीं होती है, इसके तो छाया है ।’’ 
तत्काल मीणे ने दुर्गा के हाथ पकड़े तो काठ का हाथ पाया । तुरन्त तलवार लेकर शेर और दुर्गा के टुकड़े - टुकड़े करके जमीन में दबा दिया । राधोदास जी महाराज कहते हैं कि मीणों के लड़कों ने जैसा संतों का वचन सुना था, उसी से सारे कुटुम्ब की रक्षा कर ली ।
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साधु बरसैं राम रस, अमृत वाणी आइ ।
दादू दर्शन देखतां, त्रिविध ताप तन जाइ ॥१२॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष अपनी वाणी द्वारा राम - रस रूप अमृत की वर्षा करते हैं । वहॉं साधक पुरुष अमृत को पान करके अमरभाव को प्राप्त हो जाते हैं । ऐसे मुक्त - पुरुषों के दर्शन करने से तन की तीनों ताप नष्ट हो जाती हैं ॥१२॥
श्‍लोक
आधि व्याधि शरीराणां, कफः वायुः ज्वरस्तथा । 
काम - क्रोध - मदं - मोहं, अध्यात्म पाप उच्यते ॥
सर्प - व्याघ्र - तस्कराणां, यक्ष - भूत - पिशाचिका । 
अग्नि - भयं शस्त्र - भयं, अधिभूतास्ते उच्यते ॥
शीत उष्मश्च वृष्टिश्‍च, विद्युत्पातो यथा भयम् । 
देवगन्धर्व - नामानां, अधिदैवस्तापोच्यते ॥
साखी
हित चित करके बैठिये, संग न तजिये मूर । 
‘बाजिदं’ साध के दरस तैं, पाप ताप ह्वैं दूर ॥
श्रवण सुनत सीतल सुखी, दरस देखि दुख जाइ । 
‘जगन्नाथ’ साधू मिलै, जीव की जलनि बुझाइ ॥
(श्री दादू वाणी ~ साधू का अंग)

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