卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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अष्टम दिन ~
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सखी ! एक का एक अहारा,
उसके बिना मंद व्यवहारा ।
अन्नाहार मनुज का जानी,
नहिं, विराग का आश सयानी ॥७॥
आं वृ. - ‘‘एक का, एक भोजन है। वह उसे खा जाता है तब व्यवहार मंद पड़ जाता है। बता वह कौन है?”
वां वृ. - ‘‘मनुष्य है और भोजन अन्न है। जब भोजन अधिक खा लेता है तब सोने की सूझती है और सोने पर सभी व्यवहार कम पड़ जाते हैं।”
आं वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो वैराग्य है और उसका आहार आशा है। जब आशा को वैराग्य नष्ट कर देता है तब भोगों की प्राप्ति के लिये होने वाले व्यवहार कम पड़ जाते हैं। तेरे हृदय की भी जब विषयाशा वैराग्य से कम हो जायेगी तब संयम पूर्वक जीवन निर्वाह होने लगेगा और लौकिक व्यवहार कम हो कर अन्तरमुखता बढ़ जायगी। कुछ काल सत्संग के अनुसार साधन करने पर यह दशा तू प्रत्यक्ष देखेगी।”
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एक पुरुष नारी ने मारा,
मरत दोउ घर सुख विस्तारा ।
गोली ने तन गद संहारा,
नहीं क्षमा ने क्रोध पछारा ॥८॥
आं वृ. - ‘‘एक स्त्री ने एक महाबली पुरुष को मार दिया। उसके मरते ही दोनों घर सुखी हो गये। बता वे कौन हैं?”
वां वृ. - ‘‘औषधि की गोली ने शरीर का गद(रोग) नाश किया होगा। उससे रोगी के घर और वैद्य के घर सुख हुआ होगा।”
आं वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! क्षमा ने क्रोध को मारा है। क्रोध के नाश होते ही जिसे क्रोध आता है और जिस पर आता है दोनों ही सुखी हो जाते हैं। तू भी क्षमा का समादर करना जिससे तुझे भी क्रोध न सता सकेगा और तू सदा शांत रह सकेगी।
(क्रमशः)
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