卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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अष्टम दिन ~
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स्वयं शीत अन्य हिं कर डारे,
निज गुण को कबहु न विसारे ।
सखि ! हेमन्त शीत मैं जानी,
नहिं, यह तो है शांति सयानी ॥१३॥
आं वृ. - ‘‘आप शीतल है और दूसरों को भी शीतल बना देती है तथा अपने गुण का त्याग नहीं करती। बता वह कौन है?”
वां वृ. - ‘‘हेमन्त ॠतु की ठंडी है।”
आं वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो शांति है। शांति जिनमें आती है उनका स्रदय भी शांत बना देती है। तू भी शांति को अपने स्रदय में स्थान दे जिससे तेरा हृदय भी शांत हो जाय।”
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सखी ! एक बढ़ती ही जावे,
उसका अन्त कोउ नहिं पावे ।
सांझ समय की छाया जानी,
नहिं, सज्जन की प्रीति सयानी ॥ १४॥
आं वृ. - ‘‘एक बढ़ती ही जाती है, उसका अन्त कोई भी नहीं देख सकता। बता वह कौन है?”
वां वृ. - ‘‘सायंकाल की छाया है।”
आं वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो स्वार्थरहित सज्जनों की प्रीति है। नि:स्वार्थ प्रेम नहीं टूटता और स्वार्थ का प्रेम तो स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर नहीं रहता। तू भगवान और संतों से निस्वार्थ प्रेम करना। उनसे कोई संसारिक पदार्थ न चाह कर केवल कल्याण की ही चाह करना, तब ही उनमें तेरी अखंड और अनन्य प्रीति रह सकेगी।”
(क्रमशः)
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