गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

पंच पदारथ मन रतन ४/२९८

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*परिचय का अंग ४/२९८*
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*पंच पदारथ मन रतन, पवना माणिक होइ ।*
*आतम हीरा सुरति सौं, मनसा मोती पोइ ॥२९८॥* 
दृष्टांत - 
एक पुष्प कोउ पुरुष ले, हरिहिं समर्पा आय । 
ता पुन्य के सु प्रभाव सेष इन्द्र होय नृप जाय ॥२४॥ 
एक पुरुष एक दिन बाग में घूमने गया था । वहां उसने एक अति सुन्दर सुगंध वाला पुष्प देखा और उसे अपनी प्रिया वेश्या के लिए तोड़ लाया । किन्तु वेश्या घर पर नहीं मिली । तह यह सोचकर कि फिर तो यह पुष्प खराब हो जायगा, अतः एक हरि मंदिर में जाकर हरि के समर्पण कर दिया । 
फिर उसका देहान्त हुआ तब यमदूत उसके सूक्ष्म शरीर को अपनी पाश में बाँधकर यमराज के पास ले गये । जमराज ने चित्रगुप्त से कहा - इसके पुण्य - पाप देखो । चित्रगुप्त ने देखकर कहा - इसके पाप ही पाप है केवल एक पुष्प इसने हरि मंदिर में जाकर हरि के सर्पण किया था । बस, वही एक पुण्य है । यमराज ने कहा - उस पुण्य के फल के रूप में इसे हरि दर्शन करा लाओ । 
उसे हरि मंदिर में ले गये तो वह दर्शन कर के वहां ही बैठ गया । उसे उठाने लगे तब वह बोला - हरि पर पुष्प चढ़ाने का फल तो हरि दर्शन मिल गया किन्तु हरि दर्शन और तुम लोग यमराज के पास जाकर आओगे, उतनी देर का हरि स्मरण का फल क्या होगा यह यमराज से पूछकर और उस फल का भोग हो जाने के पश्चात मुझे यमराज के पास ले चलना । 
यमदूतों ने उक्त बात यमराज को कही तब यमराज ने कहा - उसे थोड़ी देर इन्द्र पद देकर अर्थात् इन्द्र के समान सुख देकर मृत्यु लोक में अमुक देश का राजा बना दिया जाय । फिर वैसा ही कर दिया गया । जब एक पुष्प हरि के समर्पण करने से उक्त फल मिला तब उक्त २९८ की साखी में कथित रत्नमाला प्रभु को पहनाने से कितना फल होगा ? अर्थात् मुक्त हो जायगा । यही उक्त कथा का तात्पर्य है ।

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