*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“सप्तम - तरंग” १५-६)*
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*शिष्य जग्गाजी प्रसंग - लीला सलेम बाद में*
शिष्य जगा रमिये गुरु आयसु,
सो विचरे निज शुद्ध स्वभाऊ ।
संत सलेमहिंबाद सुन्यो यश,
देखन द्वार जगा चलि जाऊ ।
भोजन महंत दियो जन आपुन,
पांति के बाहिर दूर बिठाऊ ।
मृत्तिक - पातर में धरि भोजन,
बिट्ठल की गति संत लखाऊ ॥१५॥
स्वामीजी के शिष्य जग्गा जी - आज्ञा लेकर रामत के लिये निकले । शुद्ध भाव से विचरते हुये निम्बार्क सम्प्रदाय के आचार्यपीठ की प्रशंसा सुनकर वे सलेमाबाद पहुंचे । वहाँ भोजन के समय साधुओं की पंक्ति से जग्गाजी को बाहर दूर बैठाया गया । उन्हें मिट्टी के पात्र में भोजन दिया गया । इस तरह भेदभाव देखकर जग्गाजी ने विट्ठल(कुत्ते) की लीला दिखाई ॥१५॥
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जेतन संत तिते कर बिट्ठल,
आमन सामन भोजन पाई ।
बिट्ठल देखि लखे परशुरामजु,
संत प्रभाव हिं शीश नवाई ।
संत ! सता तुम लीन करो अब,
यो अपराध क्षमा करूं भाई ।
देखत लीन भये सब विट्ठल,
यों परचा जु जगा दिखलाई ॥१६॥
(जब इन साधुओं ने मुझे कुत्ते की तरह पंक्ति से दूर भोजन दिया है तो हे समर्थ ईश्वर ! इनकी थाली पत्तलों में भी कुत्तों भोजन करने लग जावें) जग्गाजी द्वारा ऐसा संकल्प करते ही सभी की थालियों में आमने सामने कुत्तों भोजन करते हुये दिखाई देने लगे । महन्त परशुराम जी सुविज्ञ संत थे, वे संत प्रभाव से पैदा हुई लीला को समझ गये । उन्हें शीश निवाकर प्रार्थना की - हे सिद्ध संत ! अपनी लीला को विलीन करो, आपके साथ जो अपराध हुआ है, उसे क्षमा करो । तब देखते ही देखते सब विट्ठल विलीन हो गये । जग्गाजी का परचा देखकर सब विस्मित थे ॥६॥
(क्रमशः)
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