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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*निष्कामी पतिव्रता का अंग ८/३५*
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*पतिव्रता गृह आपने, करे खसम की सेव ।*
*ज्यों राखे त्यों ही रहे, आज्ञाकारी टेव ॥३५॥*
दृष्टांत -
पतिव्रता खाती त्रिय, काउ जन देखण आय ।
घृत छाणत हेला दिया, त्यों ठाढो भइ जाय ॥५॥
एक संत भ्रमण करते हुये एक ग्राम में आये हुये थे । उन्होंने लोगों से सुना हमारे यहाँ के खाती की पत्नी पतिव्रता है । फिर एक दिन संत पतिव्रता माता का दर्शन करने खाती के घर गये । खाती दरवाजे में अपना काम कर रहा था । संत को देख प्रणाम करके पू़छा - कैसे पधारे हैं ? संत ने कहा - मैंने सुना है आपकी पत्नी पतिव्रता है । उन माताजी का दर्शन करने आया हूं ।
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खाती ने अपनी पत्नी को आवाज दी - जिस स्थिती में हो उसी स्थिति में शीघ्र मेरे पास आओ । वह घृत छाण रही थी घृत का पात्र टेढा था । अतः वैसे ही आ गई । घृत पृथ्वी पर पड़ता आ रहा था । वह आकर खड़ी हो गई । संत ने दर्शन करके प्रणाम किया ।
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फिर खाती ने कहा आब जाओ । वह चली गई । संत ने खाती से पू़छा - माताजी घृत गिराती हुई क्यों आई ? घृत पात्र रखके आती । खाती ने कहा - वह मेरी आज्ञानुासर ही करती है । घृत के गिरने की परवाह नहीं करती । उक्त प्रकार ही संत प्रभु की आज्ञानुसार ही करते हैं ।
(क्रमशः)
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