शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

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卐 सत्यराम सा 卐
दादू जिसका दर्पण ऊजला, सो दर्शन देखै मांहि ।
जिस की मैली आरसी, सो मुख देखै नांहि ॥८९॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिसका अन्तःकरण रूप दर्पण ‘ऊजला’, कहिए निर्वासनिक, निर्विकार निर्लेप हो गया है, वह पुरुष अपने अन्तःकरण में ही स्वस्वरूप आत्मा को साक्षात्कार, अपरोक्ष करता है । और जिसका अन्तःकरण रूपी दर्पण असम्भावना, विपरीत भावना, मायिक आवरण से आवृत्त है, वह परमेश्‍वर का साक्षात्कार नहीं कर पाता ।
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दादू निर्मल शुद्ध मन, हरि रंग राता होइ ।
दादू कंचन कर लिया, काच कहै नहीं कोइ ॥९०॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! मुक्त - पुरुषों का मन, माया के गुण - विकारों से रहित हुआ शुद्ध मन, परमेश्‍वर की भक्ति वैराग्य ज्ञान में रत्त रहता है । फिर उस मन पर मायिक विकारों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । वह फिर ब्रह्मस्वरूप हो जाता है ॥९०॥ 
(श्री दादू वाणी ~ मन का अंग) 
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साभार : James Robinson Cooper … posted to Vaikuntha Dhama 
The steadily devoted soul attains unadulterated peace because he offers the result of all activities to Me; whereas a person who is not in union with the Divine, who is greedy for the fruits of his labor, becomes entangled. Gita 5.12

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