मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

सोइ शूर जे मन गहै १०/१०

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मन का अंग १०/७*
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*सोइ शूर जे मन गहै, निमष न चलने देइ ।*
*जब ही दादू पग भरे, तब ही पकड़ सु लेय ॥७॥*
दृष्टांत - 
इक कन्या यह नियम किया, मोहिं परणे हो शूर ।
सिंह हता गज अरि हने, तिय तज भाजा दूर ॥१॥
एक राजकन्या ने प्रतिज्ञा की थी कि जो मेरे कथानानुसार वीरता दिखायेगा, वही शूर मेरा पाणीग्रहण करेगा । उससे विवाह करने के लिये अनेक व्यक्ति आते थे किन्तु उसके कथनानुसार वीरता दिखाने में अपने को असमर्थ समझकर लौट जाते थे । 
फिर एक सच्चा शूर भी आया और उसने कहा - आप कहैं वैसे ही शौर्य दिखा सकता हूँ । बाई ने कहा - बिना शस्त्र सिंह को मारो, मल्ल युद्ध से हाथी के दांत उखाड़ो और अपने शत्रुओं को मार कर आओ, फिर मेरा पाणिग्रहण कर सकते हो । वह वीर बाई के कथनानुसार करके आया और बोला - अब मेरे साथ विवाह करो । तब बाई ने कहा - 
सिंह विदारण हैं बली, अरु तोरण गंज दंत ।
काम कटक से मुड़ चले, एसे कायर कंत ॥२॥
यह सुनकर उक्त वीर ने कहा - हम काम कटक(सेना) को भी जीतेंगे । ऐसा कहकर तपस्या करने वन को चला गया और बाई की इच्छा पूर्ण हो गई । बाई आजन्म ब्रह्मचारिणी रहना चाहती थी किन्तु माता - पिता के आग्रह पर उसने उक्त प्रतिज्ञा की थी । भगवान् ने उसकी इच्छा पूर्ण कर दी । उक्त वीर भी वन को चला गया और बाई भी आजन्म प्रभु का भजन करके प्रभु को प्राप्त हो गई । दोनों ने अपने - अपने मन को दृढ़ता से पकड़ कर रक्खा था । यहीं उक्त ७ की साखी में कहा है - मन जीतने वाला ही शूर है । 
(क्रमशः)

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