मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

मन का आसन जे जिव जाने १०/११

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मन का अंग १०/११*
*मन का आसन जे जिव जाने, तो ठौर - ठौर सब सूझै ।*
*पांचों आनि एक घर राखे, तब अगम निगम सब बूझै ॥११॥* 
दृष्टांत - 
जशवन्त नृप प्रश्‍न किया, आसन अच्छा कौन । 
दासनारायण ने कहा, दादू कहा है जौन ॥३॥ 
 जोधपूर नरेश जशवंतसिंह प्रथम ने दादूजी के पौत्र शिष्य और घडसीदासजी कड़ेल वालों के शिष्य नारायणदासजी चांपारस वाले अपने गुरुजी से पू़छा था - आसन कौनसा अच्छा है ? तब नारायणदासजी ने कहा था - जो दादूजी ने मन के अंग की ११ साखी में कहा है, वही अच्छा है । दादूजी ने उक्त ११ की साखी में कहा है - मन का आश्रय रूप आसन आत्म स्वरूप ब्रह्म है । उस ब्रह्म को जो जान जाता है, उसे सभी स्थानों में और प्रत्येक वस्तु में ब्रह्म ही भासने लगता है । उक्त आसन के समान फलप्रद कोई भी आसन नहीं है । अतः उक्त आसन ही सर्वश्रेष्ठ है ।
(क्रमशः)

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