卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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नवम दिन ~
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आवत जो उसको ही खावे,
विरला कोई बचने पाव ।
यह राक्षस रत्नाकर केरा,
नहीं काल कित है मन तेरा ॥४॥
आं वृ. - “जो आवे उसे ही खा जाता है । उससे कोई विरला ही बचने पाता है । बता वह कौन है ?’’
वां वृ. - “यह रत्नाकर समुद्र का वह राक्षस है, जो लंका जाते समय हनुमान जी के मार्ग में आया था । वह आकाश मार्ग से जाने वालों को अपने ऊपर आते ही नीचे खेंच कर खा जाता था । हनुमान जी ने ही उसे मारा था । उससे हनुमान जी जैसे विरले ही बच पाये थे ।’’
आं वृ. - “नहिं, सखि ! तेरा मन किधर चला जाता है । यह तो काल है; सभी को खाता है किन्तु कोई विरले ब्रह्मनिष्ठ ही इससे बच पाते हैं । तू भी भगवत् भक्ति द्वारा ब्रह्मज्ञान प्राप्त करेगी, तब ही काल चक्र से निकल पायेगी और यदि भक्ति में प्रमाद करेगी तो बारंबार मरती रहेगी ।’’
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उदय होय पीछे छिप जावे,
फिर आवरण हटत प्रगटावे ।
छिपत चन्द्र घन से मैं जानी,
नहिं यह संशय ज्ञान सयानी ॥५॥
आं वृ. - “एक उदय हो कर फिर छिप जाता है और पुन: आड के हटते ही प्रगट हो जाता है । बता वह कौन है ?’’
वां वृ. - “चन्द्रमा है । चन्द्रोदय के समय नभ में बादल हो तो वह बादल में छिप जाता है । बादल हटने पर पुन: प्रगट हो जाता है ।’’
आं वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो ज्ञान है । सत्संग के द्वारा स्रदय में उदय होता है किन्तु संशय आजाने से छिप जाता है । फिर सत्संग और मनन के द्वारा अज्ञान नाश हो जाता है तब पुन: प्रगट होकर ब्रह्मानंद देता है । तू भी जब तक संशय हो, तब तक बारंबार प्रश्नोत्तर के द्वारा ज्ञान का अभ्यास करते रहना । जब तेरा संशय निवृत्त हो जायगा तब ज्ञान द्वारा तुझे भी परमानंद प्राप्त होगा । इसमें संशय नहीं ।’’
(क्रमशः)
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