#daduji
*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“अष्टम - तरंग” ३-४)*
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लोग कहें - सब साँभर तें इत,
*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“अष्टम - तरंग” ३-४)*
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लोग कहें - सब साँभर तें इत,
दीददयालु गुरु चलि आये ।
संत सु सिद्ध सुने हम कानन,
संत सु सिद्ध सुने हम कानन,
नैन निहार बड़े फल पाये ।
पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण,
पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण,
देश विदेश सबै जन आये ।
भीर घणी दिन रैन रहै इत,
भीर घणी दिन रैन रहै इत,
होत उचार कथा मन भाये ॥३॥
उन भक्तजनों के द्वारा स्वामीजी की आगमन वार्ता चारों दिशाओं में सर्वत्र फैलने लगी । लोग परस्पर कहने लगे - साँभर शहर से एक सिद्ध संत पधारे है, पहले जिनकी शोभा हम कानों में ही सुनते थे, उन्हें आज आँखों से देखकर कृतार्थ हो गये । वे बहुत दयालु संत है । यों शोभा सुनकर चारों दिशाओं से भक्तजन दर्शनार्थ आने लगे । भीड़ होने लगी । संत नित्य नियम से कथा सत्संग भजन कीर्तन करते रहते ॥३॥
उन भक्तजनों के द्वारा स्वामीजी की आगमन वार्ता चारों दिशाओं में सर्वत्र फैलने लगी । लोग परस्पर कहने लगे - साँभर शहर से एक सिद्ध संत पधारे है, पहले जिनकी शोभा हम कानों में ही सुनते थे, उन्हें आज आँखों से देखकर कृतार्थ हो गये । वे बहुत दयालु संत है । यों शोभा सुनकर चारों दिशाओं से भक्तजन दर्शनार्थ आने लगे । भीड़ होने लगी । संत नित्य नियम से कथा सत्संग भजन कीर्तन करते रहते ॥३॥
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*चारो दिशा से भक्त सत्संग में आने लगे*
आवत भक्त चढावत भेंट हि,
आवत भक्त चढावत भेंट हि,
स्वामिजु द्रव्य छुवै कछु नांही ।
छाजन भोजन संत हु पावत,
छाजन भोजन संत हु पावत,
ध्यान धरें निशि वासर मांही ।
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य रू शूदर,
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य रू शूदर,
ले उपदेश हिं भक्ति कराही ॥
ज्ञान सुनाय किये सुधि सेवक,
ज्ञान सुनाय किये सुधि सेवक,
संत सभा नित होवत ताही ॥४॥
भक्तजन भेंट चढाते रहते, किन्तु स्वामीजी किसी द्रव्य को नहीं छूते । वस्त्र, भोजन सामग्री, सम्पत्ति आदि संतों में वितरित करवा देते । स्वामीजी तो निर्लेप निरीह भाव से अहर्निश ध्यान में ही लीन रहते । चारों वर्ण जातियों के भक्तजन उपदेश सुनने आने लगे । नित्य होने वाली सत्संग सभा में ज्ञान पाकर उनके अन्त:करण शुद्ध होने लगे, भावभक्ति बढ़ने लगी ॥४॥
(क्रमशः)
(क्रमशः)
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