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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*निष्कामी पतिव्रता का अंग ८/५४*
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*करामात कलंक है, जाके हिरदै एक ।*
*अति आनन्द व्याभिचारिणी, जाके खसम अनेक ॥५४॥*
दृष्टांत -
साधु एक तिय से कहा, तो पति परसों आय ।
आया उत्सव देख के, घोड़ी पेट चिराय ॥१५॥
एक संत ग्राम में भिक्षा लेने जाते थे । एक दिन एक क्षत्रिय कुल की माता ने उनसे पू़छा - भगवान् मेरे पति विदेश गये है, उनके कोई समाचार नहीं है । आप बता सकें तो कृपा करके बतावें वे कब आयेंगे ? संत ने ध्यान द्वारा देखकर बताया - परसों आयेंगे । तब बाई ने पतिदेव के आने के दिन सुन्दर भोजन बनाये और श्रृंगार आदि से अपने को तथा घर को भी सजाय ।
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पति आये और उसके श्रृंगार आदि देखकर सोचा - हो सकता है यह सब तैयारी किसी अन्य पुरुष से इसका प्रेम होग, उसके लिये है । फिर पूछा - यह श्रृंगार किसके लिये किया है । पत्नी - आपके लिये । पति - मेरे आने की तो कोई सूचना ही नहीं थी । पत्नी - एक संत भिक्षा लेने आते हैं, उनसे मैंने पू़छा था उन्होंने मुझे बताया था कि परसों आयेंगे । वह परसों आज की ही दिन है । पति - वे भिक्षा ले गये या अब आयेंगे ? पत्नी - अब आने वाले ही हैं ।
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इतने में ही संत भिक्षा लेने आ गये । तब उसके पति ने पू़छा - मेरी इस घोड़ी के बछेरा होगा या बछेरी होगी ? संत - हम नहीं जानते । उसने कहा - नहीं जानते तो मेरे आने का दिन कैसे बताया था ? या तो बताओ, नहीं बताओंगे तो इस तलवार से अभी आपका शिर काट दूंगा । तब संत ने ध्यान द्वारा देखकर बताया- बछेरा होगा ।
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उसने तत्काल तलवार निकालकर घोड़ी के पेट पर मारी तब बछेरा निकला फिर घोड़ी और बछेरा दोनों ही मर गये । इसीसे उक्त ५४ की साखी में कहा है - करामात कलंक है उक्त करामात से दो प्राणियों के प्राण गये । उक्त क्षत्रिय बछेरा को देखकर संत के चराणों में शिर धर के क्षमा मांगने लगा । संत तो क्षमाशील थे ही । क्षमा कर दिया कु़छ न कहा और लौट गये ।
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उक्त ५४ की साखी के उत्तरार्ध –
"अति आनन्द व्यभिचारिणी, जाके खसम अनेक" पर द्वितीय दृष्टांत-
भोज मंगायो वृक्ष हित, पतिव्रता को क्षीर ।
गये राव घर पू़छयो, एक घंटे धर धीर ॥१६॥
एक समय राजा भोज दिग्विजय करके आये थे और राजसभा के सामने एक सुन्दर पीपल का वृक्ष था, उसके नीचे बैठे थे । फिर उन्होंने ऊपर देखा तो ज्ञात हुआ पीपल तो सूख गया है ।
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राजा ने पंड़ितों की सभा कराके पू़छा - पीपल अतिशीघ्र कैसे सूख गया है ? विद्वानों ने कारण खोज कर कहा - इस पर किसी पक्षी ने कृतघ्न की हड्डी डाल दी है, उसी से सूखा है । राजा ने हरा होने का उपाय पू़छा तो पंड़ितों ने कहा - इस पर पतिव्रता का दूध छिड़का जाय तो हरा हो जायगा । राजा ने सभा के मध्य में एक थाल रखकर एक पान बीड़ा उसमें रक्खा और कहा - जिसकी पत्नी पतिव्रता हो वह इस पान - बीड़ा को उठाकर खाले और अपनी पतिव्रता पत्नी का दूध लाकर पीपल पर छिड़कावे ।
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एक राव की पत्नी राव को कहती थी - मैं पतिव्रता हूँ । इससे राव ने पीन-बीड़ा उठा लिया । फिर दूध लाने घर को जा रहा था । मार्ग में एक गूजरी माता बछड़े चरा रही थी । वह पतिव्रता थी अतः उसे ज्ञात हो गया । इससे उसने पू़छा - आज आप राजसभा से शीघ्र ही कैसे चले आये ? तब राव ने उक्त कथा सुना दी माता ने कहा - रावजी आप भोले हो । आपकी पत्नी पतिव्रता नहीं है । आप जाकर पत्नी से कहना कि राजा ने बीस पति वाली स्त्री का दूध मँगवाया है । अब मैं उसे कहां खोजने जाऊं ।
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राव ने वैसा ही किया तब राव की पत्नी बोली- आप इस कार्य के लिये तो दुःखी न हो, मेरे १९ पति तो हैं और एक अभी और कर आती हूँ फिर मेरा ही दूध ले जाना । यह सुनकर राव उक्त माता के पास आकर बोला - आप मेरी धर्म की बहिन हो, मेरी लाज रखो । तब उस माता ने अपना दूध राव को दिया । उसके छिड़कने से पीपल हरा हो गया किन्तु बीच की एक डाली जिस पर हड्डी पड़ी थी वह हरी नहीं हुई ।
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तब राजा ने राव से कहा - एक डाली भी हरी होनी चाहिये । राव पुनः उक्त माता के पास गया और बोला- एक डाली सूखी रह गई है । फिर माता ने परब्रह्म से प्रार्थना की कि - प्रभो ! केवल मेरे जेठ का पुत्र गोद में था तब उसने एक दिन गोद में पेशाब कर दिया था । इससे अन्य दोष मेरे में कु़छ भी नहीं हो तो वह डाली हरी हो जाय । उक्त प्रार्थना करते ही वह डाली भी हरी हो गई थी ।
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माता के उक्त सत्य वचन से प्रभु भी प्रसन्न हुये और राजसभा सहित राजा भी उक्त माता को प्रणाम करके उसकी जय ध्वनि करने लगे । अतः कहने मात्र से पतिव्रता नहीं होती वैसे ही कहने मात्र से निष्कामी पतिव्रता भी सिद्ध नहीं होता ।
(क्रमशः)

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