रविवार, 22 दिसंबर 2013

= ११७ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
ना वह मिलै, न हम सुखी, कहो क्यों जीवन होइ।
जिन मुझको घायल किया, मेरी दारु सोइ ॥१५॥
विरहीजन कहते हैं कि जब तक हमें प्यारे प्रीतम नहीं मिलते, तब तक हम सुखी कैसे रहें ? क्योंकि बिना परमेश्वर-दर्शन पाए तो हमारा जीवन ही वृथा है अर्थात् विरहीजनों को परमेश्वर के वियोग का ही दु:ख है और परमेश्वर के दर्शनों का संयोग ही परम आनन्द है ॥१५॥
जो मोहि वेदन वैद्य सुनि, लिखी न कागद माँही।
क्या ढंढारे पोथियां, पचे तो पावे नाहिं॥
जाहु बैद घर आपणे, जाणी जाइ न कोइ।
जिन दुखलाया "नानका", भला करेगा सोइ॥
कांई ढीलै पोथियां, पचै तो पावै नाहिं।
मौत न वेदन विरह दी, लिखी न पुस्तक माहिं॥
विरह विथा जाके लगी, ताही पै जु बुझन्त।
ज्यूं धवल ध्वज पवन वश, उरझ उरझ सुरझंत॥
.
दर्शन कारण विरहनी, वैरागिन होवै।
दादू विरह बियोगिनी, हरि मारग जोवै ॥१६॥
सतगुरुदेव कहते हैं कि विरहीजन, भगवत् दर्शनों के लिये संसार से वैराग्य लेते हैं और भगवत् दर्शनों के बिना विरह से अति व्याकुल होकर, ईश्वर से मिलने की प्रतीक्षा करते हैं ॥१६॥
क्या करुँ बैकुन्ठ का, कल्प-वृक्ष की छाँह।
"हेतम'' ढाक सुहावणां, जहाँ सज्जन गहि बाँह॥
(श्री दादू वाणी ~ विरह का अंग)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें