सोमवार, 23 दिसंबर 2013

= ११९ =

卐 सत्यराम सा 卐
गुरु उपदेश 
दुर्लभ दर्शन साध का, दुर्लभ गुरु उपदेश । 
दुर्लभ करबा कठिन है, दुर्लभ परस अलेख ॥१५४॥ 
टीका - पूर्व पूण्य बिना उत्तम, प्रभु भक्त साधु संतों का दर्शन और उनका सत्संग प्राप्त होना दुर्लभ है, और यदि सतगुरु मिल भी जावें तो उनका सत्य उपदेश करना कठिन है, और जो दया करके उपदेश भी कर दें, तो फिर चिरकाल से विषयों में आसक्ति वाला मन उसका पालन नहीं करता । और जो कदाचित् आज्ञा का पालन भी कर लेवे, तो इस लोक के स्त्री - धन - पुत्र के सुख, मान, प्रतिष्ठा तथा परलोक के ऋिद्धि - सिद्धि आदि, इन सब प्रलोभनों को छोड़कर परमात्मा का साक्षात्कार करना तो अति कठिन है ॥१५४॥ 
परन्तु फिर भी सतगुरु महाराज कहते हैं कि निष्काम भाव से सच्चे साधु महात्माओं का सत्संग करके और श्रद्धा सहित गुरुजनों का उपदेश सुनकर निरन्तर उसके अनुसार अनन्य भक्ति से परमात्मा के पवित्र नामों के जपने से ही जीवों का कल्याण सम्भव है । इसके अलावा परमात्मा की प्राप्ति का और कोई साधन नहीं है । 
दुर्लभ: सद्गुरु देव: शिष्य - सन्तापहारक: । 
अतिविचित्र: शान्तश्च शुद्धभक्तिसमन्वित: ॥ 
जोगेश्वर गये जनक के, मिल्यो बाथ भर सोइ । 
नाथ अल्प जीवन यह, बार बार नहीं होइ ॥ 
दृष्टांत :- एक समय ऋषभदेव के पुत्र नौ जोगेश्वरों ने विचार किया कि राजा जनक ज्ञानी हैं तो चले, उनकी परीक्षा करें । यह विचार कर राजा के नगर के समीप पहुँचे । राजा जनक ने सुना कि नौ जोगेश्वर आ रहे हैं । वह बहुत प्रसन्न हुआ । थाल में पूजा की सामग्री सजाकर पण्डित और मन्त्रियों को साथ लेकर सामने लेने को चला । 
दूर से राजा ने विचार किया कि ये तो नौ हैं और मैं एक हूँ । किस प्रकार इनसे मिलूं ? क्योंकि शरीर क्षणिक है । तब राजा ने यह सोचा कि एक दफा नौ के नौ से बाथ भरके मिल लूं । फिर यथायोग्य पूजा करूँगा । इतने में नौ जोगेश्वर समीप आए । राजा दौड़कर भुजा पसार कर नौ के नौ से बाथ भरके मिला । जोगेश्वर बोले :- राजन् ! यह क्या मिलना ? तब राजा बोला :- 
दुर्लभो मानुषो देही, देहीनां क्षण - भंगुर: । 
तत्रापि दुर्लभो मन्ये, बैकुण्ठ - प्रिय - दर्शनम् ॥ 
हे नाथ ! प्रथम तो मनुष्य का देह मिलना कठिन है और फिर यह शरीर एक क्षण में नाश होने वाला है । क्या पता इसका कब नाश हो जावे ? इसके उपरान्त भगवान् बैकुण्ठवासी विष्णु, उनके प्रिय भक्त, आप लोगों का दर्शन होना दुर्लभ है । 
मैंने विचार किया कि एक से मिलूं और कदाचित् शरीर छूट जावे, तो अन्य से मिलने की इच्छा रह जाएगी । इसलिए मैंने विचार किया कि एक दफा सबसे बाथ भरके मिल लूं । यह कहकर राजा ने विधिपूर्वक योगेश्वरों की पूजा की और फिर बड़े हाव - भाव से लाकर महलों में ठहराया । अनेक प्रकार से सेवा की और उनका ज्ञानोपदेश सुनकर कृत - कृत्य हो गया । 
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग) 
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साभार : Kripa Shankar B ~ 
ब्रह्मविद्या के आचार्य और अधिकारी कौन हैं ~ 
ब्रह्मविद्या के आचार्य हैं --- भगवान सनत्कुमार । 
वे साक्षात मूर्तिमान ब्रह्मविद्या हैं । 
उन्हीं की कृपा से सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी के मानस पुत्र नारद जी देवर्षि बने ।
ब्रह्मविद्या का ज्ञान सर्वप्रथम भगवन सनत्कुमार ने नारद जी को दिया था । 
जो धर्म का दान करते हैं और भगवद् महिमा का प्रचार कर नरत्व और देवत्व को उभारते हैं वे ही नारद हैं । 
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द्वापर युग में भगवान सनत्कुमार ने विदुर जी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया था । विदुर जी की प्रार्थना स्वीकार कर भगवान सनत्कुमार ने प्रकट होकर धृतराष्ट्र को भी ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया । 
महाभारत युद्ध से पूर्व धृतराष्ट्र ने विदुर जी से प्रार्थना की कि युद्ध में अनेक सगे-सम्बन्धी मारे जायेंगे और भयंकर प्राणहानि होगी, तो उस शोक को मैं कैसे सहन कर पाऊंगा? विदुर जी बोले की मृत्यु नाम की कोई चीज ही नहीं होती । मृत्युशोक तो केवल मोह का फलमात्र होता है । 
धृतराष्ट्र की अकुलाहट सुनकर विदुर ने उन्हें समझाया कि इस अनोखे गुप्त तत्व को मैं भगवन सनत्कुमार की कृपा से ही समझ सका था पर ब्राह्मण देहधारी ना होने के कारण मैं स्वयं उस तत्व को अपने मुंह से व्यक्त नहीं कर सकता । मैं अपने ज्ञानगुरु मूर्त ब्रह्मविद्यास्वरुप भगवान सनत्कुमार का आवाहन ध्यान द्वारा करता हूँ ।
भगवन सनत्कुमार जैसे ही प्रकट हुए धृतराष्ट्र उनके चरणों में लोट गए और रोते हुए अपनी प्रार्थना सुनाई । तब भगवन सनत्कुमार ने धृतराष्ट्र को ब्रह्मविद्या के जो उपदेश दिए वह उपदेशमाला --- "सनत्सुजातीयअध्यात्म् शास्त्रम्" कही जाती है । भगवान सनत्कुमार का ही दूसरा नाम सनत्सुजात है । सनत्कुमार ही स्कन्द यानि कार्तिकेय हैं । 
ॐ नमो भगवते सनत्कुमाराय ।
भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को देवर्षियों में नारद बताया है । 
हर युग में धर्म प्रचार में नारद जी की एक विशिष्ठ भूमिका रही है । 
समस्त लौकिक विद्याओं में पारंगत होकर भगवान् सनत्कुमार से ब्रह्मविद्या पाकर वे देवर्षि बने । 
जो जीवों को प्रसन्न होकर सद्गति प्रदान करता है उसका नाम है --- नर। 
"नरतीति नरः प्रोक्तः परमात्मा सनातनः" अर्थात् नरति --सद्गतिं प्रापयति भक्तान् इति नरः। सनातन परमात्मा को नर इसी कारण कहा गया है । 
इस नरपदवाच्य परमात्मा से सम्बद्ध दिव्य ज्ञान को नार कहते हैं --
नरस्येदं ज्ञानं नारम्। नारं हरिविषयकदिव्यज्ञानं ददाति इति नारदः। 
"नार" यानि भगवान् के विषय का दिव्य ज्ञान जो प्रदान करे ---- उस देवर्षि को नारद कहते हैं ।
वे एक ज्ञानस्वरूप त्रिकालज्ञ कवि हैं । वे वेदव्यास और भक्तशिरोमणि ध्रुव के गुरुदेव हैं । उन्हीं का पवित्र नाम लेकर कविश्रेष्ठ वाल्मीकि का आदि महाकाव्य -- रामायण -- आरम्भ होता है । 
"तपः स्वाध्यायनिरततपस्वी वागविदां वर: ।
नारदं परिप्रपच्छ वाल्मीकिर्मुनीसत्तम: ॥" 
---- अर्थात तप:स्वाध्यायनिरत तपस्वी वेदज्ञ नारद को मुनिवर वाल्मीकि ने प्रश्न किया कि हे भगवन आप तो सर्वत्र विचरण करते हैं, हर बात भली भाँति जानते हैं, क्या आपने कोई ऐसा पुरुष देखा है जो सकल गुणों में श्रेष्ठ हो ?
नारद जी ने उत्तर दिया कि जिन गुणों का आपने वर्णन किया है, उन्हें एक साथ मैंने किसी देवता में भी नहीं पाया है, पर जिस मानव में ये सकल गुण विद्यमान हैं उन नरचन्द्रमा की बात आपको सुनाता हूँ । नारद ने रामकथा सुनाई । इस प्रकार रामायण रचना की प्रेरणा वाल्मीकि ने देवर्षि नारद से ही पाई थी ।
महाभारत में देवर्षि नारद विभिन्न भूमिकाओं में बहुत बार अवतीर्ण हुए हैं । वे युधिष्ठिर को राजनीति एवं राजधर्म पर उपदेश देते हैं । उन्हें हम वेद-उपनिषद् के ज्ञाता, इतिहास-पुराणज्ञ, अर्थनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ, युद्ध-संधि विशेषज्ञ और मानव धर्म के निगूढ़ तत्ववेता के रूप में पाते हैं ।
महर्षि वेदव्यास के पास देवर्षि ने अपने पिछले तीन जन्मों का परिचय देते हुए कहा था ---- पहले मैंने एक गन्धर्व के रूप जन्म लिया था । उस जन्म में मैं एक दुराचारी था । अपने कुकर्मों के फलस्वरूप दुसरे जन्म में मैंने एक ऋषि के आश्रम में दासीपुत्र के रूप में जन्म लिया । वहां निरंतर साधुसंग, शुद्ध वातावरण और शुद्ध भोजन से मेरे संचित पापों का क्षय हुआ । निरंतर भगवत कथा सुनते सुनते मेरे मन में तीब्र भक्तिभाव जागा । एक दिन सांप के काटने से मेरी माँ की मृत्यु हो गयी । इस मातृवियोग को मैं भगवान की देन मानकर उत्तर दिशा की ओर चल दिया ।
पुण्यभूमि हिमालय में मैंने भगवान का ध्यान किया । भगवन का स्वरुप मेरे चिदाकाश में आविर्भूत हुआ । पर वह शीघ्र ही अंतर्ध्यान हो गया । उनके वियोग में मैं कातर हो गया । उस क्षणिक दर्शन को चिरस्थायी और अविच्छेद्य बनाने के लिए मैंने नर्मदा तट पर आसन लगाया और तपस्या की । कृपामयी शिवपुत्री नर्मदा की करुणा के फलस्वरूप मुझे दैवीजन्म प्राप्त हुआ ब्रह्माजी के मानसपुत्र के रूप में ।
पिंगल जटायुक्त, तेजोदीप्त, नयनाभिराम, जरादिविकारविहीन, चिन्मय, चिरयुवा देहधारी नारद जी अपने हाथों में वीणा लिए निरंतर भगवद् भजन करते रहते हैं । उनके किसी भी भक्त के जीवन में कोई भी समस्या उत्पन्न होने पर वे प्रकट होकर भक्त के चिंतन को उसके इष्ट देव की ओर प्रेरित कर देते हैं ।
महाभारत के शांतिपर्व की इस कथा के साथ मैं इस लेख का समापन करूंगा । 
एक दिन देवर्षि नारद हिमालय में व्यासदेव के आश्रम में गए । वहां एकदम चुप्पी छाई हुई थी । न तो हवन कुंड में अग्नि प्रज्ज्वलित थी और ना ही वेदपाठ हो रहा था । व्याकुल होकर देवर्षि ने वेदव्यास पर कटाक्ष किया ---- 
हे ब्रह्मर्षि ! आप मौन और चिंताग्रस्त क्यों हैं? आपके आश्रम में कोई शोभा नहीं दिखती । ओंकारध्वनि से वंचित होकर आपका आश्रम व्याधगृह सा क्यों लग रहा है?
उस समय भारत में व्यासाश्रम सर्वोच्च था । व्यासदेव पर इतना बड़ा लांछन नारद जी ने लगाया । कृष्णद्वैपायन व्यासदेव बहुत धीमे से बोले -- मेरे पुत्र से भी अधिक प्रिय मेरे शिष्य(वैशम्पायन, सुमंत, पैल और जैमिनी) आज वेदप्रचार के लिए आर्यावर्त गए हुए हैं जिन के बिना मैं बहुत दुखी हूँ । मेरे मन में कोई शांति नहीं है और राक्षसभय से मैं मन मारकर चुपचाप बैठा हूँ । 
व्यासदेव की बात सुनकर नारद जी ने सतर्क वाणी उच्चारित की ---- 
अधीयताम् भवान् वेदान् सार्ध पुत्रेण धीमता । 
विधुन्वन् ब्रह्म घोषेण रक्षोभयकृतं तम: ॥ 
मुझे यह जानकार अति हर्ष हुआ की आपके शिष्य वेदवाणी का प्रचार करने गए हैं । परन्तु क्या इसीलिए धर्मज्ञान का केंद्र व्यासाश्रम चुप्पी साध लेगा? आप अपने पुत्र शुकदेव के साथ मिलकर पुन: वेदपाठ प्राम्भ कीजिये तथा ब्रह्मघोष ओंकारध्वनि द्वारा राक्षसभय को दूर कीजिये । जब नराधम अधर्मी राक्षस राष्ट्र के कोने कोने में भ्रष्टाचार और अधर्म फैलाते हैं तब वेदों का ज्ञान ही धर्म को पुन: स्थापित करता है ।
इस लेख का समापन: 
आज के भारतवर्ष की वर्त्तमान स्थिति तब से भी खराब है । राष्ट्र के कोने कोने में नराधम राक्षसों ने अधर्म और अनाचार फैला रखा है । हमें आवश्यकता है एक नई व्यवस्था के किये ब्रह्मतेजोमय भगवन वेदव्यास जैसे व्यक्तित्व की, भगवन राम जैसे शासक की और देवर्षि नारद जैसे मार्ग दर्शकों की । भगवान इस भारतभूमि का कल्याण करे । 
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

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