रविवार, 15 दिसंबर 2013

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#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
ज्यों तुम भावै त्यों खुसी, हम राजी उस बात ।
दादू के दिल सिदक सौं, भावै दिन को रात ॥५०॥ 
टीका - हे प्रभु ! इस शरीर के अनुकूल, जो भी कसौटी आपको अच्छी लगे, देओ । हम उसी में प्रसन्न हैं । चाहे आप दिन को रात और रात को दिन कहो, तो हम वैसा ही कहेंगे । और चाहे सूर्य - चन्द्रमा अपने गुण धर्म रूप कार्य छोड़ दें और प्रारब्ध - कर्म चाहे अनुकूल हो या प्रतिकूल, परन्तु आपके भक्तों का विश्‍वास तो, आप पर अटल रहता है । वे मायावी विकारों से उदासीन होकर आपकी भक्ति के विश्‍वास में ही मग्न रहते हैं ।
प्रसंग - मोरड़ा ग्राम में महाराज को एक वर्ष पश्‍चात् शरीर त्यागने की हरि आज्ञा हुई ॥५०॥ 
संत चार अति तप करैं, एक भिक्षा को जाइ । 
चून उड़त आंधी रखी, रजा मेट दुख पाइ ॥ 
दृष्टान्त - एक स्थान पर चार संत तपस्या कर रहे थे । एक संत रोजाना नगर में आटे की भिक्षा लेने जाया करता था । एक रोज जब वे भिक्षा लेने गये, तो जोर से आँधी आ गई । एक माई आटा पीसती थी, उसका आटा हवा से उड़ रहा था । यह साधु भिक्षा को जब गया, माई बोली - महाराज ! आंधी को रोक दो, तो अभी आप को आटा पीसकर भिक्षा दे दूँ । संत बोला - रुक जा । तो आंधी रुक गई । जब भिक्षा लेकर आये और भोजन बनाया, पाया । तो चारों का मन विचलित हो गया और प्रभु स्मरण में नहीं लगता है । संतों ने ईश्‍वर से प्रार्थना की कि हे नाथ ! हमारा मन आपके नाम - स्मरण में क्यों नहीं रुकता है ? परमेश्‍वर ने आकाशवाणी की कि हे महात्माओं ! मैं आंधी रूप से समुद्र में, यात्रियों की जहाज तारने जा रहा था, उन्होंने मुझे पुकारा था । इस महात्मा ने मुझे कह दिया रुक जा, तो मैं रुक गया । वह जहाज डूब गई, उसका पाप तुम्हें लगा है । इसी से तुम्हारा मन मेरे में नहीं लगता है । यह सुनते ही चारों महात्माओं ने बड़ा पश्‍चात्ताप किया और प्रभु से अपराध क्षमा चाहा ।
दादू करणहार जे कुछ किया, सो बुरा न कहना जाइ ।
सोई सेवक संत जन, रहबा राम रजाइ ॥५१॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! इस सृष्टि की उत्पत्ति, पालन करने वाला परमेश्‍वर, जो कुछ प्रारब्ध अनुसार करता है, सुख या दुःख, वह सब अच्छा है । उसको कभी बुरा नहीं कहता कि परमेश्‍वर ने यह अच्छा नहीं किया । वेही तो सच्चे संत हैं और वेही सच्चे सेवक भक्त हैं, जो राम की रजा में रहते हैं और राम का स्मरण करते हैं ॥५१॥ 
(श्री दादू वाणी ~ विश्वास का अंग) 
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"भगवान् श्रीकृष्ण" 
~~~~~श्री हरि शरणम्~~~~~ 
ठाकुर जी के लिए प्राणों में तड़प 
श्री पंडित जगन्नाथ प्रसाद जी 'भक्त माली' एक बार श्री हरि बाबा के बाँध पर कथा कहने गए। साथ में एक संत को भी ले गए थे। जब बाँध पर पहुचे तो उन संत को याद आया कि मेरे ठाकुर जी तो गाड़ी में ही रह गए। वे बड़े विकल हुए। स्टेशन वहाँ से आठ कोस दूर था। लोगों ने समझाया कि सेवा पूजा के लिए दुसरे ठाकुर जी ले लीजिए। स्वंय श्री पंडित जी और हरि बाबा ने भी समझाया लेकिन वो तो रोने लगे। लोगों ने कहा...भाई ! रोने-विलखने से अब क्या होने वाला है ? गाड़ी तो न जाने कहाँ चली गयी होगी। परन्तु संत की विकलता बढ़ती गयी। 
तब श्री हरि बाबा ने कहा कि इन्हें जाने दो, ये स्टेशन तक हो आवे, इस से इन्हें संतोष हो जायेगा, नहीं तो ये रोते रोते प्राण छोड़ देगे। यज्ञ में विघ्न हो जाएगा। संयोग की बात, जब संत जी स्टेशन पर गए तो वह गाड़ी स्टेशन पर ही खड़ी थी। पूछने पर वहां लोगो ने कहा कि किसी डिब्बे में आग लग गयी थी, अत: वह आगे नहीं जा सकी। संत जी ने अपने ठाकुर जी को खोजा तो वे यथा स्थान मिल गए। वे खुशी खुशी फिर बाँध पर लौट आये। 
जय श्री राधे जय श्री कृष्ण _/|\_

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