रविवार, 15 दिसंबर 2013

= १०५ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
विरह विनती
आज्ञा अपरंपार की, बसि अंबर भरतार । 
हरे पटंबर पहरि करि, धरती करै सिंगार ॥१५७॥
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मर्षि दादू दयाल जी महाराज कहते हैं हे इन्द्र महाराज ! आपको अपरंपार परमात्मा की आज्ञा हैं कि इस प्रजा का पालन करो । क्योंकि आप इस पृथ्वी के भर्तार हो(पति हो) । इस पृथ्वी के जो वस्त्र हैं, वे आपके अधीन हैं । वे जब आप पहनाओगे, तब पहनेगी । वस्त्र क्या हैं ? सो बताते हैं । 
वसुधा सब फूलै फलै, पृथ्वी अनंत अपार । 
गगन गर्ज जल थल भरै, दादू जै जै कार ॥१५८॥
टीका - हे जिज्ञासुओं ! वसुधा कहिए पृथ्वी अनन्त अपार है वनस्पतियों के सहित । और यह पृथ्वी नाना प्रकार के फल - फूल इत्यादि हरे वस्त्र धारण करके समस्त अंगों पहाड़, झील आदि सहित अपना श्रृंगार करती है । इसी से प्रजा में आनंद होता है । इसलिए हे इन्द्र महाराज ! आप आकाश में मेघों द्वारा जल - वर्षा करके पृथ्वी को जल से पूर्ण कर दो ।
काला मुँह कर काल का, सांई सदा सुकाल ।
मेघ तुम्हारे घर घणां, बरसहु दीनदयाल ॥१५९॥
टीका - हे इन्द्र महाराज ! आपके घर में अनेक मेघमाला हैं, इसीलिए आप सदा सुकाल रूप हो और इस दीन प्रजा के आप मालिक हो । अब आप इस काल का कहिए वर्षा बिना जो काल पड़ रहा है, इसका काला मुँह करो । और दयालु होकर वर्षा करो । 
सोरठा :-
आँधी गाँव हि माहिं, रहे जो दादूदास जी ।
वर्षा वर्षी नांहि, कर विनती वर्षाइयो ॥
द्रष्टान्त :- एक समय आनन्दकन्द श्री दादू दयाल महाराज ने आंधी ग्राम में अपने अनन्य भक्त पूरणदास जी ताराचंद जी महरवाल के चातुर्मास किया । उस वर्ष आंधी ग्राम में भयंकर दुष्काल पड़ा । ग्रामवासी आंधी ग्राम को त्यागकर मालवा प्रदेश में जाने लगे । जब ग्रामवासियों को महाप्रभु श्री दादूदयाल ने ग्राम त्याग कर जाने का कारण पूछा तो उन्होंने अन्न - पानी - चारे का अभाव व अकाल बतलाया । तब स्वामी जी ने उक्त तीन साखियों से इन्द्रदेव को वर्षा वर्षाने की आज्ञा दी । घनघोर घटाएँ घिरीं और इतनी जबर्दस्त वर्षा हुई कि सब ताल-तलैया पानी से लबालब भर गये और अकाल सुकाल में परिवर्तित हो गया । पृथ्वी जल से पूर्ण हो गई । कु एँ, तालाब, बावड़ी पानी से पूर्ण भर गए और रामजी महाराज की दया से जय - जयकार हो गया । ये तीनों मंत्र अनुष्ठान(साधना) रूप हैं, वर्षा के लिए । 
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साभार : Pradyumn Singh Chouhan ~ 

"जल" …… लेखन -प्रद्युम्न सिंह चौहान 
जब माँ आटा गूंथे, उस आटे में जल है, जब आटे से रोटियां बनाती है माँ, उन रोटियों को आकर देने वाला जल है । जब रोटियां फूलकर सिककर "फुलका" बन जाती है उनसे निकलने वाली भाप में भी जल है …जल ...जल ... जल। … 
जब सृष्टि के निर्माण का प्रारम्भ था तब ही जल तत्व बन रहा था फिर यह जल तत्व बना तभी सभी के जीवन का आधार जल के रूप में संभव हुआ । यह जल तत्व हममें है यह जल तत्व प्राणियों में है यह जल तत्व सभी जीवों में है । जब अग्निहोत्र(यज्ञ) करता हूँ उस समय आचमन का आधार यह जल है, वैदिक वृष्टि यज्ञ का विषय यह जल है । वेदों की ऋचाओं के गायन में भी जल है । 
शरीर की शुद्धता जल से ही है । बचपन के क्रीड़ास्थल के गड्ढों में भी जल ही था, बचपन की पिचकारियों में जल था, उस छोटे से गिलास में भी जल होता था जिससे हमें जल पिलाया जाता था । प्यासे को पानी पिलाने वाले की श्रद्धा में जल है, उसी प्यासे की तृष्णा में भी जल है । सभी प्राणियों की प्यास यह जल है । 
जल जब मिटटी या चूर्ण या आटे पर गिरे तो पिंड बन जाये, जल जब शरीर पर गिरे तो शरीर भीग जाये । गर्मी में पक्षियों के लिए रखे कटोरे में जल, यह उन पक्षियों के लिए हमारे मानवीय दृष्टिकोण में भी जल है ।
जीव का जीवन जल से ही है, जीवन का संचालन जल से ही है । प्रकृति के मूल तत्वों से बना है यह जल । जल के बनने का निमित्त कारण है परमात्मा, लेकिन उपादान कारण(बनाने की सामग्री) है प्रकृति, यही है परमात्मा, जीव, प्रकृति का सम्बन्ध । 
मानव की संवेदनाओं, भावनाओं में जल है, हमारी खुशियों के आँसु भी जल हैं, हमारे दुःख के आंसुओं में भी जल है। बहनें जब ससुराल जाये तब भाई और परिवार वालो की आँखों में बहने वाले आँसू भी जल है । भाई-बहन के संबंधों में स्नेह के कारण बार बार बहने वाली आसुओं की धाराए भी जल है । हृदय की करुणा जब अश्रुरूप में बहने लगे वह भी जल है । साथ ही श्रम करने वाले के पसीने की बुँदे भी जल हैं । 
अभी जो मेघ, या कहे बादल, बरस रहे हैं उनमें भी जल है । जो मेघों से बरस रहा या आँखों से आसुओं के रूप में बह रहा या फिर शरीर में रक्त के साथ बह रहा, यह सब ही जल तत्व है । यह शरीर जिन पञ्च तत्वों से बना है उनमें से भी जल एक है । 
लेकिन इस शरीर में भी एक आत्मा है, जब यह आत्मा प्रेम, आत्मीयता, स्नेह या किसी दूसरे के दुःख से द्रवित होकर अश्रुधारा के रूप में उस स्नेह, आत्मीयता, दुःख को बहाने लगे जब यह जल नहीं है बल्कि यह "पवित्र जल" है जिसे उस पवित्र आत्मा ने आत्मीयता, प्रेम से पवित्र कर दिया है, इसी पवित्र जल से में मानवीय संबंधों का अभिषेक करते रहता हूँ जब जीव दया, पवित्र सम्बन्ध उन आसुओं को जल रूप में मेरी आँखों से बाहर निकालते हैं क्योंकि जल तो जल है जल को पीते भी हैं लेकिन उन आसुओं के जल से मानवीय संबंधों का अभिषेक भी कर सकते हैं । 
जय माँ भारती …… जय भारत वर्ष -प्रद्युम्न सिंह चौहान

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