*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“सप्तम - तरंग” २५-२६)*
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जा दिन तें परचा पुर साँभर,
ता दिन द्वैत रह्यो नहिं कोई ।
एक अद्वैत उचार करे गुरु,
द्वैत प्रपंच सबै मल धोई ।
होय निशंक रु शंकन काहु कि,
नाम निशान बज्यो पुर जोइ ।
तेज प्रताप हिं देखि डरे पुर,
दादु दयालु हिं सेवक होई ॥२५॥
स्वामीजी के परचे - चमत्कारों से साँभर में जाति वर्ण धर्म सम्प्रदाय सम्बन्धी द्वैत भाव समाप्त हो गया था । एक अद्वैत निरंजन ब्रह्म की उपासना में रत साधु संत नि:शंक ईश्वर नाम का निशान बजा रहे थे । सभी स्वामीजी का तप तेज देखकर डरते रहते थे, उनके सेवक भक्त बन गये थे ॥२५॥
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*सभी इन्द्रीयां वशकरण प्रक्रिया*
संत अडिग हि इन्द्रिय जीतक,
ज्ञान कृपाण गही कर धारे ।
अज्ञ अज्ञान हिं सैन्य संहारत,
स्वामि जु जीत लिये मन मारे ।
क्रोध रु लोभ किये अपने बस,
मोह ममता दिक काम संहारे ।
आश रु तृष्णा दूर भगे चित,
पाँचु हिं मार पचीस पछारे ॥२६॥
जितेन्द्रिय संत अडिग साधना में लीन रहते थे । ज्ञान का कृपाण धारण करके दम्भ अज्ञान की सेना का संहार करते रहते । पाँचों इन्द्रियों और मन को वश में कर लिया था । क्रोध, लोभ, मोह, ममता, काम आदि विकारों का संहार कर दिया था । आशा और तृष्णा को चित्त से दूर भगा दिया था । पाँचों इन्द्रियों की वासना को मारकर प्रकृति के पच्चीस तत्वों को पछाड़ दिया था ।(उनका रहस्य पहिचान लिया था) ॥२६॥
(क्रमशः)
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