मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

जिहिं आसन पहले प्राण था ७/३५

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*लै का अंग ७/३५*
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*जिहिं आसन पहले प्राण था,*
*तिहिं आसन ल्यौ लाइ ।*
*जे कु़छ था सोई भया, कछू न व्यापै आइ ॥३५॥*
उक्त साखी के - "जिहिं आसन पहले प्राण था" इस अंश के चार अर्थ करते आये हैं :
१. गर्भवास, २. ब्रह्म, ३. उपजन, ४. सत्संग
अर्थात - पहला - गर्भवास में जब प्रभु से प्रार्थना करता है - मुझे बाहर निकालें मै आपका ही भजन करुंगा । उसी स्थिति में यह बाहर आकर रहे तो इस प्राणी पर सांसारिक माया का कु़छ भी प्रभाव नहीं पड़ता ।
दूसरा - आत्मा ब्रह्म स्वरुप ही है । अतः ब्रह्म आश्रय रुप आसन है, उसी ब्रह्म में ही मन रहे तो भी मायिक प्रपंच का प्रभाव जीव पर नहीं पड़ता ।
तीसरा- उपजन- उत्पत्ति परमात्मा से ही होती है और कार्य कारण रुप ही होता है । अतः आत्मा परमात्मा का ही रुप है । मति इस विचार में लीन रहे तो भी मायिक प्रपंच का कु़छ भी प्रभाव नहीं पड़ता ।
चौथे - सत्संग में जैसे मन रहता है, वैसे सदा ही रहे तो भी मायिक प्रपंच का मन पर कु़छ भी प्रभाव नहीं पड़ता है । इस पर दृष्टांत -
इक बणिया दीवान हो, धरी राखी पोसाक ।
ताहि देख गर्वे नहीं, रीझ नृपति किया नाक ॥ ५ ॥
एक वैश्य अपनी सौजन्यता से राजसभा में किसी विभाग का मंत्री बन गया था किन्तु अपने पहले के फटे वस्त्र एक पेटी में रखता था और राजसभा में जाते प्रतिदिन उनके दर्शन करके जाता था । जिससे अपनी पहली स्थिती स्मरण रहे और अपने पद का गर्व नहीं हो तथा सदा न्याय में ही मन रहे । उसके न्याय प्रियता आदि गुणों से प्रसन्न होकर राजा ने उसे सबका नाक(प्रधान) मंत्री बना लिया था । उक्त प्रकार जो अपनी पहली स्थिति रुप आसन पर मन रखता है अर्थात् उक्त चार आसनों में से किसी पर भी आरुढ़ रहता है, उसे प्रभु भी अपना निज पार्सद बना लेते हैं अथवा अपना स्वरुप ही बना लेते हैं । फिर उस पर मायिक प्रभाव नहीं पड़ता । 
(क्रमशः)

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