शनिवार, 14 दिसंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(स.दि.- १७/८)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
सप्तम दिन ~ 
सखी ! एक का रूप निहारे, 
हर्षित चित्त न अन्य विचारे । 
देख चकोर चन्द्रमा केरा, 
नहिं, गुरु को लखकर मन मेरा ॥१७॥ 
आं. वृ. - ‘‘एक का दर्शन करते ही, मन अति प्रसन्न होता है और उस समय अन्य विचार कुछ भी नहीं करता। बता वह क्या है?” 
वां. वृ. - ‘‘चन्द्रमा को देख कर चकोर की ऐसी दशा हो जाती है।”
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखी ! गुरु जी को देखकर मेरे मन की ऐसी दशा होती है। उस समय ब्रह्म, गुरु, विश्‍व और निजात्मा आदि का भिन्न ज्ञान मन में नहीं रहता; सब अद्वैत ब्रह्म रूप ही भासते हैं। तू भी यदि गुरु उपदेश में मन को स्थिर करेगी तो इस अवस्था को इसी शरीर में प्रत्यक्ष देख कर कृत कृत्य हो जायेगी।” 
एक एक में पड़त सुरंगा, 
सजनी यह अति उत्तम संगा । 
जाला में रवि किरण सयानी,
नहीं, हृदय में श्री गुरु बानी ॥१८॥ 
आं. वृ. - ‘‘एक में एक पड़ते ही सुन्दर - सुन्दर रंग दीखते हैं और उन दोनों का संयोग बड़ा ही उत्तम ज्ञात होता है। बता वे कौन है?” 
वां. वृ. - ‘‘शीतकाल में मकड़ियों के जाले वन में होते हैं। राषि को ओस पड़ती है, उससे जाले भीग जाते हैं। प्रात: उन पर सूर्य किरण पड़ती हैं तब उनमें नाना सुन्दर रंग दीखते हैं।” 
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो हृदय में श्री गुरुदेव के शब्द पड़ते हैं तब नाना सुन्दर विचार प्रगट होते हैं। तू भी गुरुजनों के शब्दों को मन लगा कर विचारेगी तो तेरे हृदय में भी सुन्दर - सुन्दर विचार प्रगट होने लग जायेंगे। फिर तो श्‍नै: शनै: तेरा हृदय ही अति उत्तम विचारों का केन्द्र बन जायगा।”
(क्रमशः) 

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