卐 सत्यराम सा 卐
सत गुरु किया फेरि कर, मन का औरै रूप ।
दादू पंचों पलटि कर, कैसे भये अनूप ॥१०॥
टीका - सतगुरु ने ज्ञान उपदेश द्वारा जीव के सांसारिक विषयों में संग्न मन का और ही रूप बना दिया है, अर्थात् ब्रह्म-परायण कर दिया है । यद्यपि सतगुरु ने तो कृपा करके जिज्ञासु के मन को निर्मल बना दिया है, किन्तु इन्द्रियों के सम्बन्ध से मन पुन: मैला हो जाएगा ? उत्तर में, सतगुरु उपदेश करते हैं कि "दादू पंचों पलटि कर" अर्थात् पाँचों जो ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, इन सभी इन्द्रियों को पलटकर कहिये बाह्य विषयों से बदलकर, आत्म-सन्मुख करके गुरुदेव ने जीव को परमात्मा स्वरूप बना दिया है ॥१०॥
मन को साधन एक है, निसदिन ब्रह्म विचार ।
सुन्दर ब्रह्म विचार तैं, ब्रह्म होत नहीं बार ॥
काचे को पाका करै, फेर घड़े सब घाट ।
तब जानो सहजैं मिलें, चैन ब्रह्म की बाट ॥
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साचा सतगुरु जे मिलै, सब साज संवारै ।
दादू नाव चढ़ाय कर, ले पार उतारै ॥११॥
टीका - जो कदाचित् सौभाग्य से यदि आत्मानुभवी सतगुरु की प्राप्ति हो जाये, तो उनकी कृपा से जीव के सम्पूर्ण कत्र्तव्य पूर्ण हो जाते हैं, क्योंकि सतगुरु ही रामनाम रूपी नौका में बैठा करके अज्ञानी जीव को संसार सागर के दु:ख-बन्धन से मुक्त करते हैं ॥११॥
सुन्दर सतगुरु जगत में, पर उपकारी होइ ।
नीच ऊँच सब उद्धरै, शरण जु आवै कोइ ॥
हरिगीतक छंद
जो आइ शरणहि होइ प्राप्ति, ताप तीन तन की हरै ।
पुनि फेर बदलै घाट उनको, जीव तै ब्रह्महि करै ॥
कछु ऊँच नीच न दृष्टि जिनके, सकल को विश्राम है ।
दादू दयाल प्रसिद्ध सतगुरु, ताहि मोरि प्रणाम है ॥
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सतगुरु पसु मानस करै, मानस थैं सिध सोइ ।
दादू सिध थैं देवता, देव निरंजन होइ ॥१२॥
टीका - दयामूर्ति सतगुरु, दृढ़ मति(निश्चल बुद्धि) जिज्ञासु को विषयों की दासता रूप पशुता से बचाकर मनुष्य बनाते हैं और स्त्री, पुत्र, पौत्र आदि की कामना वाले मनुष्यों को ज्ञान उपदेश द्वारा सिद्ध बनाते हैं अर्थात् राम-नाम में एकाग्र बुद्धि करते हैं । तत्पश्चात् चमत्कार अहंकार की सिद्धाई से देव अर्थात् सगुण व निर्गुण ब्रह्म में एकाग्र करते हैं । जिससे वह असीम ऐश्वर्य अनुभव करने लगता है । किन्तु सिद्ध और देव पद भी मायिक ही हैं, अर्थात् मायावी हैं तो सतगुरु की अति सामर्थ्य क्या हुई ? इस शंका का समाधान करके कहते हैं कि "देव निरंजन होइ" अर्थात् सर्व सामर्थ्यवान् सतगुरु जिज्ञासु को देव पद से उपदेश द्वारा निरंजन निराकार स्वरूप भी बना लेते हैं । अत: सतगुरु सर्वसमर्थ हैं ॥१२॥
सर्व सामर्थ्यवान सतगुरु पशु को भी कृपा करके राम - नाम उपदेश द्वारा मुक्त करते हैं, जैसे :- बनजारे के बैलों और गुठले के प्रदेश में गायों का उद्धार किया है और मनुष्यों को भी राम - नाम के उपदेश द्वारा संसार बन्धन से मुक्त किया है । जैसे :- रज्जब जी, बखना जी, सुन्दरदास जी आदि का प्रसंग है । सतगुरु ज्ञानोपदेश द्वारा सिद्धों को भी मुक्त करते हैं, जैसे आमेर में काबुल के घोड़ों को देखते हुए दो सिद्धों का प्रसंग है ।
दोई सिद्ध स्वामी पै आये, घोड़ा देख रु मन मुस्काये ।
स्वामी कहैं कहाँ चित्त दीन्हां, नीले कान सु आगे कीन्हा ॥
द्रष्टान्त - दो सिद्ध उत्तराखंड से सुरति रूपी शरीर द्वारा, आमेर में दादू जी की गुफा में पहुँचे । दादू जी ध्यानावस्था में थे । वे दोनों सिद्ध सुरति से काबुल में दौड़ के घोड़े देखने लगे और यह विचार किया कि इस आनन्द को हम ही देखते हैं, दादू जी नहीं देख रहे हैं । तब दादू दयाल जी ने उन सिद्धों को उपदेश किया :- "मायिक पदार्थों में क्या दिल दिया ? और दिया भी तो ठीक से देखो । आगे कौन-सा घोड़ा है ?" सिद्धों ने कहा- "दोनों बराबर हैं ।" दादू जी ने कहा- "नीले घोड़ें के कान आगे हैं ।"
कृपालु सतगुरु राम-नाम के प्रभाव से सिद्धों को भी मुक्त करते हैं । जैसे करडाले में प्रेत का आख्यान आता है । मनुष्यों की चार श्रेणी मानी हैं - पामर, विषयी, जिज्ञासु और मुक्त । शास्त्रों में पहले पामर श्रेणी के मनुष्य को उपदेश का अधिकारी नहीं माना जाता है । तथापि श्री सतगुरु की अति कृपा से ज्ञानोपदेश द्वारा, तीनों श्रेणी के जिज्ञासुजों को मुक्त करते हैं, यही सतगुरु की अति सामर्थ्य है ।
भोज नृपति को देखि के, कन्या ढक्यो न सीस ।
नृप पूछी गुरु पै गयो, मनुष्य लक्षण बत्तीस ॥
द्रष्टान्त - एक समय राजा भोज दौरा करके अपने नगर में वापिस लौट रहे थे । चार कन्याएँ कुए पर खड़ी थीं । राजा को देखकर तीन लड़कियों ने सिर ढक लिया । उनमें से एक ने नहीं ढका । बाकी तीन सहेलियों ने उसे भी सिर ढकने को कहा, क्योंकि राजा आ रहा है । उसने कहा - यह राजा नहीं, यह पशु है । राजा ने पूछा :- पुत्री, मैं पशु कैसे हूँ ? कन्या ने कहा मेरे गुरु बताएँगे, जो नाग पहाड़ पर रहते हैं । राजा वहाँ पर गया । गुफा के दरवाजे पर सिला लगी देखी । राजा ने आवाज लगाई - "दर्शन करने आया हूँ" अन्दर से संत जी बोले :- "कौन हो ?" "मैं राजा हूँ" "फिर अन्दर आ जाओ ।" राजा ने कहा- "सिला लगी है ।" संत जी बोले :- "तुम सत्य बोलो कौन हो ?" फिर कहा "मैं राजा हूँ ।" संत जी बोले - "राजा तो एक राम हुआ है, उसके समान हो तो हाथ लगाओ, सिला स्वयं हट जाएगी । " राजा ने हाथ लगाया परन्तु सिला नहीं हटी । संत जी ने कहा :- "सत्य बोलो ।" तब राजा बोला - "मैं क्षत्रिय हूँ ।" संत जी बोले :- "क्षत्रिय तो एक अर्जुन हुआ है । वैसा पराक्रम है तो हाथ लगाओ, सिला हट जायेगी ।" राजा बोला :- "सिला नहीं हटती ।" संत जी पुन: बोले :- "सत्य बोले, कौन हो ? "राजा बोला- "मैं मनुष्य हूँ" संत जी बोले, "इस समय मनुष्य तो एक राजा भोज है । आप वह हैं तो हाथ लगाओ सिला हट जाएगी ।" राजा ने हाथ लगाया, सिला एक दम हट गई । सन्तजी को नमस्कार किया और दर्शन करके राजा भोज उनके उपदेश से अपने में एक मानव का निश्चय करके कृत - कृत्य हो गया ।
मनुष्य के लक्षण बत्तीस
सुकृत, प्रमाण, पराक्रम, कुल, रूप क्रिया,
सज्जन सुबुद्धि, सत्य, शील, व्रतधारी है ।
विचक्षण, विनय, विश्वास, वन्दनीक, विद्या,
निरलोभ, सूर, दया, दान, उपकारी है ॥
तुच्छ निद्रा, सदा सुचि, ओजस्वी, प्रकाश बुद्धि,
हरि गुरु मात पितु, भगति पियारी है ।
शास्त्रज्ञ, धर्मज्ञ, मितभुक, इन्द्रिजीत नर,
सर्वगुण सम्पन्न सो नगर मंझारी है ॥
इन लक्षणों से रहित मनुष्य पशु के समान है । सुन्दरदास जी कहते हैं -
दीखत के नर दीसत हैं, पर लक्षण तो पशु के सबही हैं ।
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)
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साभार : Bhakti - मेरे गुरु के चरणों में
पहिले समझा जाये कि सत्संग क्या है ?
दर असल .....सत्संग = सत+संग ........सत का साथ
(१)सत = सत्य ,,,,,,और सत्य केवल परमात्मा, परमेश्वर है //
(२)संग = साथ .......सत्संग में ऐसे संगी(समाज) जो परमात्मा परमेश्वर के दिखाए रास्ते पर चलते हैं /
(३)सत + संग ........ ऐसे संगी जो एक साथ मिल, बैठकर परमात्मा परमेश्वर की चर्चाएँ और उन के दिखाए दिखाए रास्ते पर चलने की समझ(प्रबल इच्छा शक्ति) देते हैं / उस माहोल को, समा को सत्संग कहते हैं /
(४)सत्संग दरअसल एक ऐसी बाढ़ का कार्य करती है जो हमें सभी बुरे कार्यों से बचा कर रखती है, और परमात्मा परमेश्वर की राह आसान बना देती है //
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प्रश्न है ---- सत्संग क्यों जरुरी है //
असल में सत्संग से आत्मा पर पड़ी धूल,,, जो हजारों सालों से मैली हो गयी है,, उस धूल को साफ करने का कार्य करती है और हमेँ बोध कराती है कि चोरासी लाख योनियों को पार कर के मानुष योनी मिली है और इस समय को गलत कार्यों से बचा कर,, सही कार्य अर्थात ईश्वर से मिलने की घडी पैदा कर, इस घडी से चूके अर्थात सारी सीडी चढ़ गए लेकिन आखरी सीडी से पैर फिसल गया, सीधे चोरासी लाख योनियों के चक्कर में दोबारा आ फंसोगे /
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//कलियुग में इस की महत्ता//
पुराने समय में बच्चों को माता पिता,,, स्कूल में आचार्य,,, और समाज का माहोल,, उन्हें अत्यंत अच्छा प्रभु भक्ति का रास्ता प्रदान करता था / आज लोगों की जिन्दगी दरसल भागमभाग होगई है,,,, न पिता के पास समय है,, न माताओं के पास // जो कि बच्चों को कोई भी धार्मिक माहोल दे पाए//
//सत्संग में जाकर हमेँ कम समय में सभी तरह का .... सार .... मिल जाता है //
इस चोरासी लाख योनियों से बाहर(परम तत्व --परमात्मा की प्राप्ति)
निकलने की कुंजी केवल मात्र सच्चे सतगुरु और गुरुओं के पास के पास है // बिन गुर कोई न पार उतर पाया //
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