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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मन का अंग १०/९३*
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मांही सूक्ष्म ह्वै रहै, बाहरि पसारै अंग ।
पवन लाग पौढ़ा भया, काला नाग भुवंग ॥९३॥
दृष्टांत -
दो कर्षा हल जोत के, बैठे तरु तल आय ।
डसा एक को मूंदिया, वर्ष गये दरशाय ॥१७॥
दो किसान प्रातः से हल चला रहे थे । मध्यान्ह में खेत में बड़ के नीचे जाकर बैठे थे कि एक को नींद आ गई और एक जाग रहा था । उसी समय बड़ के कोटर से एक काला सर्प निकला और सोये हुये को डस लिया । जो जाग रहा था उसने उस सर्प को पुनः कोटर में चलाकर कोटर का मुख बन्द कर दिया ।
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फिर अगले वर्ष उसी दिन मध्यान्ह के समय उक्त दोनों किसान उक्त बड़ वृक्ष के नीचे आकर बैठे तो जिसने सर्प को कोटर में बन्द किया था, उसने कहा - गत वर्ष आज के दिन इसी समय बड़ के कोटर से निकलकर सोते समय तुझे काले सर्प ने काटा था फिर मैंने उसे कोटक में चलाकर बन्द कर दिया था ।
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जब उसने नहीं माना तो कोटर का मुख खोला । उसमें वह सर्प पड़ा मिला उसके बाहर निकलते ही वायु लगी । तब वह प्रौढ़ हो गया और गत वर्ष जिसे काटा था उसके शरीर में विष का भी जोर हो गया ।
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सोइ उक्त ९३ की साखी में कहा है - मन भीतर तो सूक्ष्म रहता है और बहिर्मुख होते ही उक्त काले नाग के समान हो जाता है । अतः मन को अन्तर्मुख होते ही उक्त काले नाग के समान हो जाता है । अतः मन को अन्तर्मुख रखने का यत्न करना चाहिये ।
(क्रमशः)
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