卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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दशम दिन ~
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कवि -
वाह्य वृत्ति दशमें दिवस, आंतर के ढिग आय ।
शीश नमाकर प्रेम से, बैठी आसन लाय ॥१॥
ज्ञान पिपासा वाह्य की, लख कर करुणा मूर्ति ।
आंतर बोली प्रेम से, करत आश की पूर्ति ॥२॥
घर घर जाय मॉंग के लावे,
सबके धोत न आप धुलावे ।
समझ गई धोबी मैं प्यारी,
नहिं संन्यासी सब हितकारी ॥३॥
आ. वृ. - “स्थान-स्थान से मांगता है । सबके धोता है । अपना दूसरों से नहीं धुलाता । बता वह कौन है ?’’
वा. वृ. - “यह तो धोबी है ।’’
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो संन्यासी है । संन्यासी घर घर से भिक्षा लेकर निर्वाह करता है और भिक्षा तथा शिक्षा के द्वारा सबके पाप धोता है । अपना पाप किसी अन्य से नहीं धुलाता । आप ही धारणा ध्यान, विचार द्वारा धोता है । तेरे घर कोई संन्यासी-साधु-संत आवें तब उन्हें प्रेम से भिक्षा दिया कर । अतिथि को भिक्षा न देने से गृहस्थी की हानि होती है ।
शास्त्रों का कथन है कि - अतिथि के साथ इन्द्रादिक देवता आते हैं और अतिथि के सत्कार से वे अपना सत्कार तथा अतिथि के अनादर से अपना अनादर मानते हैं । जिसकी कोई तिथि(नियत समय) नहीं हो कि अमुक दिन या अमुक समय आयेगा और भूख व प्यास से व्याकुल, मार्ग से थका हो वही सच्चा अतिथि कहलाता है ।
उसके आदर करने से अग्नि देव, भोजन देने से प्रजापति, चरण धोने से पितर, आसन देने से इन्द्र प्रसन्न होते हैं । और निराश होकर गृहस्थ के घर से लौटने पर उक्त देखता रुष्ट हो जाते हैं । निराश होने पर अतिथि गृहस्थ के पुण्य ले जाता है और अपने पाप जो गृहस्थ के घर आते समय चींटी आदि मरने से होते हैं दे जाता है । सत्कार करने से अतिथि के पुण्य से गृहस्थ के पाप नष्ट हो जाते हैं ।
अतिथि-सत्कार को ही पांच महा यज्ञों में नर-यज्ञ कहा है । तू अतिथि सत्कार में प्रमाद कभी भी नहीं करना । विशेष कर संत अतिथि का तो पूरा ध्यान रक्खा कर क्योंकि उनके किंचित कृपा कटाक्ष से ही तेरा कल्याण हो सकता है । वे तुझे भगवत् ध्यानादिक की युक्ति बता कर कृतकृत्य कर सकते हैं ।’’
(क्रमशः)
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