*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“अष्टम - तरंग” १७-१८)*
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*मोहनजी ने ४ आसन देखे एक खाली था*
मोहन कहत मोहि उनपे पठाइ देत,
क्षुधा तृषा लागी तन, भोजन हु दीजिये ।
तरु फल दिये तिन पायो है प्रसाद उन,
तृषा समै नीर पाय प्राण सुख लीजिये ।
रैन विश्राम लेत, मोहन शयन हेत,
जोरि पाणि दण्डवत, दादूजी को कीजिये ।
नींद में मोहन होत, सिद्ध सु विचारी सोत,
अम्बापुरी पठे तिन, सिद्धि धर लीजिये ॥१७॥
मोहन ने प्रार्थना की - ‘मुझे उनके पास पहुँचा दीजिये । मैं भूख और प्यास से व्याकुल हूं, कुछ आहार भी दीजिये ।’ तब संतों ने वृक्षों के फल और झरने का मीठा जल मोहन को दिया, जिन्हें पाकर मोहन के व्याकुल प्राणों को अतीव तृप्ति मिली । रात्रि विश्राम हेतु मोहन सो गया । सोते समय उसने मन ही मन श्री दादूजी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया । सिद्ध संतो ने सुविचार करके नींद में सोते हुये मोहन को अपनी सिद्धि से अम्बापुरी पहुंचा दिया ॥१७॥
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*नींद से जब मोहन जागा तब आमेर शहर में*
प्रात होत बीती रैन, मोहन उघारे नैन,
मन में अचम्भो कीन्ह, सिद्ध निधि ध्यान जु ।
सिद्ध निज शक्ति हेत, इतहू पठाय देत,
बूझै नर कौन पुर, अम्बापुर नाम जू ।
मोहन जु शौच करि, वसन सुखाय धरि,
स्वामीजु के ढिग जात, सारे सब काम जू ।
चरण सरोज ऐन, मोहन निहारै नैन,
जोरि पाणि नाय शीश, करत प्रणाम जू ॥१८॥
रात्रि बीतने पर प्रात: मोहन ने जब नयन खोले तो समुद्री घटना को सोचते हुये विचार किया कि - मैं कहाँ हूँ । क्या सिद्धों ने मुझे यहाँ पहुँचा दिया । आश्चर्य के साथ तत्रत्य जनों से पूछा - भाई ! यह कौन सा नगर है ? तब उनके बताने पर ज्ञात हुआ कि - मैं अम्बापुरी पहुँच गया हूँ । स्नान शौचादि से निवृत होकर वस्त्र सुखाये, फिर उन्हें पहिन कर पूछते हुये स्वामी श्री दादूजी के आसन पर पहुँचा । मोहन ने स्वामीजी के चरण कमलों में शीष निवाकर प्रणाम किया ॥१८॥
(क्रमशः)
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