मंगलवार, 7 जनवरी 2014

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(न.दि.- २०/२१)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
नवम दिन ~
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एक द्रवित इक लखकर होई, 
सभ्य सभा में सोहत सोई ।
चन्द्रकान्त मणि चन्दा देखे, 
सज्जन स्रदय दीन को पेखे ॥२०॥
आ. वृ. - “एक, एक को देख कर पिघल जाता है और जो पिघलता है वही सभ्य समाज में शोभा पाता है । बता वह कौन है ?’’ 
वा. वृ. - “चन्द्रमा को देखकर चन्द्रमणि से अमृत टपकता है और उस मणि का सज्जन लोग सत्कार भी करते हैं ।’’ 
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो सज्जनों का स्रदय है । दीन दुखियों को देखकर दया से द्रवित हो जाता है और सज्जन ही श्रेष्ठ समाज में शोभा भी पाते हैं । संत बनने से ही संसार में सुयश और भगवत् स्वरूप में प्रवेश होता है । यदि तू भी उक्त दोनों बातें चाहती है, तो राम भजन और सत्संग द्वारा संतपना प्राप्त कर ।’’
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इक पर एक सुहावन आवे, 
शुचिता कारण इसमें पावे ।
उज्वल वस्त्र रंग वर आता, 
शुचि मन मांहि बोध उपजाता ॥२१॥
आ. वृ. - “एक पर, एक बहुत अच्छा आता है और उसके आने में हेतु शुद्धता ही ज्ञात होती है । बता वे कौन है !’’ 
वा. वृ. - “उज्वल वस्त्र पर रंग अच्छा आता है ।’’ 
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! शुद्ध स्रदय में ही संशय और विपरीत भावना से रहित अपरोक्ष आत्म ज्ञान हो पाता है । अपरोक्ष आत्म ज्ञान की प्राप्ति के लिये तू अपने मन को शीघ्र ही शुद्ध कर । चित्त शुद्ध हुये बिना उसमें आत्म ज्ञान नहीं ठहर सकेगा । तू ध्यान देकर सुन ! एक संत ने भी यही कहा है -
“कनक कटोरे बाहिरा, रहे न बाघिन क्षीर । 
त्यों रज्जब साधू शबद, राखे घट गंभीर ॥ 
भाव - संतों के ज्ञान पूर्ण शब्दों का अर्थ आत्म-ज्ञान, निष्काम कर्म द्वारा शुद्ध और ईश्‍वर उपासना द्वारा स्थिर तथा गंभीर अन्त:करण में ही ठहरता है । अशुद्ध और ओछे स्रदय में नहीं ठहरता । जैसे सिंहनी का दूध सोने के पात्र में ही ठहरता है । अन्य पात्रों से मिट्टी के पात्र से जल झरने के समान झर जाता है । इससे सूचित होता है कि ज्ञान प्राप्ति के लिये प्रथम ही मन को शुद्ध और स्थिर बना लेना चाहिये । ऐसा करने से ही सफलता मिलती है ।’’
(क्रमशः) 

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