रविवार, 5 जनवरी 2014

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(न.दि.- १६/७)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
नवम दिन ~
मारत उसके लागत नांहीं, 
दौड़त अधिक हाथ नहिं आंही । 
समझ गई मैं पक्षी छाया, 
नहिं, सखि ! चित्त जगत भरमाया ॥१६॥ 
आ. वृ. - “जिसके मारने पर भी नहीं लगती और दौड़ता इतना है कि हाथ आता ही नहीं । बता वह कौन है ?’’ 
वा. वृ. - “यह तो पक्षी की छाया है ।’’ 
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो सब संसार को भ्रम में डालने वाला मन है । जो मन के धोखे में आता है वह इस संसार के असत विषयों में भटकता हुआ सदा क्लेश ही पाता है । तू भी सदा सावधान रहना । कहीं मन के धोखे में मत आ जाना । यदि आ गई तो उससे मुक्त होना सहज बात नहीं है । मन के आगे अर्जुन जैसे वीर, नहुष, ययाति जैसे राजा, पराशर जैसे ॠषि, नारद जी जैसे भक्त आदि भी नतमस्तक हुये फिर अन्यों की तो बात ही क्या ! तू मन को साधारण मत मानना । चित्त को वश में किये बिना तेरा काम कभी भी सिद्ध नहीं हो सकेगा । ये मेरे उपर्युक्त बचन सर्वथा सत्य मानकर चित्त को निज वश करने का यत्न सदा करती रहा कर ।’’ 
धावत एक पाद बिन देखा, 
उसके तुल्य कोउ नहिं पेखा । 
यह है वायु सखी ! मैं जाना, 
मन है य नहिं तू पहचाना ॥१७॥ 
आ. वृ. - “एक बिना ही चरणों के दौड़ता है । उसके समान दौड़ने वाला कोई भी नहीं देखने में आया । बता वह कौन है ?’’ 
वा. वृ. - “मैं जान गई यह तो वायु है ।’’ 
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो मन है । मन वायु से भी अधिक दौड़ता है । कहा भी है’’- 
“होत कल्पना जलधि मन, क्षण ढीला रह एक । 
‘नारायण’ क्षण अर्ध में, देखे देश अनेक ।’’ 
(कृ. क. फ.) 
चित्त की चपलता और उसकी शक्ति का पता उन्हीं साधकों को लगता है, जो मन को अपने अधीन करने का प्रयत्न करते हैं । दूसरे साधारण लोग तो सहसा कह देते हैं कि - मन का क्या जैसे रक्खें वैसे ही रह जाता है । किन्तु ऐसी बात नहीं । वास्तव में ऐसे लोगों ने मन-निरोध की ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया । तभी तो ऐसे शब्द बोलते हैं । 
जो मन-निरोध की ओर पूर्ण रूप से ध्यान देते रहे हैं तथा जिन्होंने मन को स्थिर किया है, वे लोग तो, अपने अनुभव से बारंबार यही कह गये हैं कि मन बड़ा दु:ख देता है । उन सज्जनों की उक्त उपज सर्वथा सत्य है । क्योंकि मन संसारिक विषयों की ओर दौड़ता है, यह तो प्रत्येक व्यक्ति ही जानता है और संसारिक प्राणी भी विषयों को ही चाहते हैं । ऐसी दशा में उन्हें मन की शक्ति का क्या पता लगे । 
परन्तु साधक संत मन को भगवत् स्वरूप में लगाते हैं और वह विषयों में जाता है । तब मन के साथ उनका द्वन्द्व युद्ध छिड़ता है । इसलिये वे मन की शक्ति को पहचानते हैं । साधारण प्राणी मनेच्छानुसार ही चलते हैं । वे मन के धोखे को नहीं जान पाते । सखि ! तू सदा सचेत रहना, मन की चाल में नहीं फँसना और उसे साधन में लगा कर स्थिर करने का प्रयत्न सदा करती रहना ।’’
(क्रमशः)

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