बुधवार, 8 जनवरी 2014

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(न.दि.- २२/३)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
नवम दिन ~
खेंचत एक, एक को देखे, 
थिर राखे सो सबको पेखे ।
सखि चुम्बक लोहे को ऐंचे, 
गुरु का शब्द शिष्य को खेंचे ॥२२॥
आ. वृ. - “एक, एक को देखते ही खेंचता है और सब के देखते-देखते उसे स्थिर करके रोक लेता है । बता वह कौन है ?’’ 
वा. वृ. - “चुम्बक लोहे को खैंच कर स्थिर कर देता है ।’’ 
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! गुरु का शब्द शिष्य को संसार दशा से खेंच कर भगवत् स्वरूप में स्थिर कर देता है । तू भी गुरुजनों के शब्दों को ध्यान लगाकर सुनना और भली प्रकार विचार करना । तभी वे तुझे भगवत् स्वरूप में स्थापन कर सकेंगे ।’’
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ज्यों घोटत त्यों होवे आछे, 
आत दृश्य वर उसमें पाछे ।
यह है दीवाल मैं पहचानी, 
नहिं, साधक मन जान सयानी ॥२३॥
आ. वृ. - “एक को ज्यों-ज्यों घोटा जाता है त्यों-त्यों वह श्रेष्ठ बनता है । और पीछे उसमें सब दृश्य भी दीखने लगता है । बता वह क्या है ?’’ 
वा. वृ. - “यह तो दीवाल है । विशेष घुटाई से दर्पण के समान बन जाती है; फिर उसमें सन्मुख का दृश्य दीखने लगता है ।’’ 
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो साधक का मन है । ज्यों-ज्यों साधन किया जाता है, त्यों-त्यों ही वह उज्वल होता जाता है, फिर उसमें दर्शनीय भगवत् स्वरूप का दर्शन होने लगता है । तू भी जब निरंतर साधन करेगी तब तेरे स्रदय में भी भगवत् स्वरूप प्रगट होने लग जायगा और भगवत् दर्शन करके तू कृत कृत्य हो जायगी ।’’ 
(क्रमशः)

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