बुधवार, 1 जनवरी 2014

दादू मन का भावता १०/३६

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मन का अंग १०/३६*
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*दादू मन का भावता, मेरी कहै बलाइ ।*
*साच राम का भावता, दादू कहै सुण आइ ॥३६॥* 
दृष्टांत - 
सब से पू़छा पातस्या, बिहिश्त हूं कि नांहि । 
सबन कहां रुख राख के, फकीर कहा तब जांहिं ॥५॥ 
एक दिन एक बादशाह ने अपनी सभा से पू़छा - मैं बिहिश्त में जाने का अधिकारी हूँ या नहीं । तब सभा के लोगों ने कहा - आप तो अवश्य ही बिहिश्त में ही पधारेंगे, इसमें क्या संशय है ? किन्तु उस समय सभा में एक उच्च कोटि के फकीर भी थे । उन्होंने कहा - ये लोग तो तुम्हारे गुलाम हैं, इससे तुम्हारे को प्रिय लगने वाली ही बात कह रहे हैं । वास्तव में तो जब बिहिश्त में जाने योग्य कार्य करोगे तब ही जा सकोगे । किसी के कहने से ही नहीं । सोई उक्त ३६ की साखी में कहा है - सच्चे संत मन को प्रिय लगने वाली बात नहीं कहते । राम को प्रिय लगने वाली ही कहते हैं ।
(क्रमशः)

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