卐 सत्यराम सा 卐
भौ सागर में डूबतां, सतगुरु काढे आय ।
दादू खेवट गुरु मिल्या, लीये नाव चढाइ ॥१८॥
टीका - जिस प्रकार समुद्र में डूबते हुए प्राणी को नौका चलाने वाला पार उतारता है । तदनुरूप ही आवागमन जरा-मरणादि के चक्र से सतगुरु जीव की रक्षा करते हैं अर्थात् ज्ञान उपदेश आदि द्वारा जीव के कर्म - बन्धन काट देते हैं ॥१८॥
कर्णधारं गुरुं प्राप्यतद्वाक्यं प्रवहेद् दृढम् ।
अभ्यास वासनाशकत्या तरन्ति भावसागरम् ॥
सवैया
भौं जल में बहि जात हुते जिन,
काढ लियो अपनी कर आदू ।
और संदेह मिटाय दिए सब,
कानन टेर सुनाय के नादू ।
पूरण ब्रह्म प्रकाश कियो जिन,
छूट गए सब वाद-विवादू ।
ऐसी कृपा जु करी हम ऊपर,
सुन्दर के उर हैं गुरु दादू ॥
सूर पंगु पुर में बसे, और लोग गए काम ।
अग्नि लगी दोऊ बचे, पुनि वाक्य मध्य राम ।
ज्ञान कर्म दोऊ मिलें, तबही होइ उबार ।
जथा अंध के कंध पै, पंगु हो असवार ॥
द्रष्टान्त - एक नगर में एक अन्धा और दूसरा पंगुला, दो रहते थे । नगरवासी लोग खेतों में काम करने चले गए । पीछे से नगर में आग लग गई । पंगुला ने सूरदास को कहा- 'आग लग गई, मैं तो पंगुला, और आप अंधे, दोनों कैसे बचेंगे' ? सूरदास बोला - मेरे कंधे पर तू चढ़जा, तू मुझे रास्ता बताते रहना क्योंकि तेरे आँखें हैं और मेरे पैर हैं । इसलिए जिधर तूं बताएगा, उधर मैं चलकर दोनों नगर के बाहर निकल चलेंगे और अग्नि से बच जायेंगे । वैसे ही ज्ञान और कर्म । ज्ञान के आँख है परन्तु उसमें क्रिया नहीं है और कर्म के क्रिया रूपी पैर हैं । मनुष्य ज्ञान और कर्म दोनों के द्वारा ही संसार से पार हो सकता है ।
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सतगुरु महिमा
दादू उस गुरुदेव की, मैं बलिहारी जाऊँ ।
जहाँ आसण अमर अलेख था, ले राखे उस ठाऊँ ॥१९॥
टीका - शिष्य प्रार्थना करता है कि उस समर्थ सतगुरु की मैं वन्दना करता हूँ कि जिसने आसन कहिए, अन्त: करण में जो अमर अलेख परमेश्वर का स्थान है, वहाँ अपनी "शरण में" कहिए उपदेश में लेकर सतगुरु ने हम को रखा है, जिससे हम अमर हो गए हैं । इन्द्रियों के द्वारा अन्त: करण बाहर भ्रमता है जिससे प्राणी को स्वरूप का बोध नहीं होता है किन्तु परमार्थ सतगुरु ने काम, क्रोधादि जो बाह्य विषय हैं, उनसे अन्त:करण को विमुख अर्थात् हटा करके, जैसे-ऊपर "दादू काढे काल मुख" आदि साखियों में कह चुके हैं, वैसे ही अन्तर्वृत्ति कर दिया है, जिससे शुद्ध मन परमानन्द का अनुभव करता है । जब मन अन्तर्मुखी होकर निष्पाप हुआ तो उसको तत्वज्ञानरूप परमात्मा का अनुभव होने लगा ॥१९॥
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)
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साभार : Kripa Shankar B ~
जब आप जीवन में विपरीततम परिस्थितियों से घिर जाओ, कहीं आशा की किरण दिखाई न दे, चारों ओर अंधकार ही अंधकार हो तब आपके गुरु या इष्ट देव ही हैं जो आप का साथ नहीं छोड़ते| बाकि सारी दुनिया आपका साथ छोड़ दे पर गुरु और इष्ट देव कभी आप का साथ नहीं छोड़ सकते| आप ही उन्हें भुला सकते हो पर वे नहीं|
उनसे मित्रता बनाकर रखो| वे इस जन्म से पूर्व भी आपके साथ थे और इसके बाद भी आपके साथ रहेंगे| उनका साथ शाश्वत है| उनकी सत्ता सूक्ष्म जगत में भी है और वे आपके आगे के भी सभी जन्मों में आपके साथ रहेंगे| यह आप के ऊपर है की आप उन्हें अनुभूत कर पाओ या नहीं|
अपनी सारी पीडाएं, सारे दु:ख, सारे कष्ट उन्हें सौंप दो| वे ही हैं जो आपके माध्यम से दुखी हैं| वे ही कष्ट बन कर आये हैं, और वे ही समाधान बन कर आयेंगे|
उन्हें मत भूलो, वे भी आपको नहीं भूलेंगे| निरंतर उनका स्मरण करो| जब भूल जाओ तब याद आते ही फिर उन्हें स्मरण करना आरम्भ कर दो| आपके सुख दुःख सभी में वे आपके साथ रहेंगे|
अपने ह्रदय का समस्त प्रेम उन्हें बिना किसी शर्त के दो| यह उन्हीं का प्रेम था जो आप को माँ बाप के माध्यम से मिला| यह उन्हीं का प्रेम था जो आपको भाई, बहिनों, सगे सम्बन्धियों और मित्रों व अपरिचितों के माध्यम से मिला| उन्ही के प्रेम से आपको वह शक्ति मिली जिससे आप वर्त्तमान में जो कुछ भी हैं|
वह कौन है जो आपके ह्रदय में धड़क रहा है? वह कौन है जो आपकी देह में सांस ले रहा है? वह कौन है जो आपकी आँखों से देख रहा है? वह कौन है जिससे आपके देह की समस्त क्रियाएँ संपन्न हो रही है? वह कौन है जिसने आपको सोचने समझने की शक्ति दी है? यह वह आपका मित्र ही है जिसने स्वयम को छिपा रखा है पर हर समय आपके साथ है| हमेशा उसे सचेतन अपने साथ रखो|
ॐ तत्सत्|
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