शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(न.दि.- १२/३)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
नवम दिन ~
इक गण को जुड़ राखे जोई, 
घर में सुख पावत है सोई ।
समझ गई गो बछियां ये हैं, 
नहीं सयानी इन्द्रिय ते हैं ॥१२॥
आ. वृ. - “एक समुदाय ऐसा है कि उसे घर में बन्द करके रक्खे, वही सुखी होता है । बता वह कौन है ?’’ 
वा. वृ. - “ये तो गोओं की छोटी छोटी बछियां हैं । खुली छोड़ देने से इधर-उधर दौड़ कर उपद्रव करती हैं ।’’ 
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! ये तो मनुष्य की ही इन्द्रियें हैं । जो मनुष्य उनको मर्यादा रूप घर में रखता है, वही सुखी होता है । और जो मर्यादा का त्याग करता है वह बारंबार दु:ख ही दु:ख भोगता है । तू भी अपनी इन्द्रियों को सदा मर्यादा में ही रखना । यदि मर्यादा त्याग कर इच्छानुसार विषयों में जाने देगी तो इस लोक और परलोक दोनों ही स्थानों में तुझे महा क्लेश उठाने पड़ेंगे ।’’
सब सुखिया होवे सुन जासे, 
इक को होय मरण की तासे ।
चन्द्र किरण हय चांदी जानी, 
श्री सुख विरही चित्त सयानी ॥१३॥
आ. वृ. - “जिससे सभी सुखी होते हैं किन्तु एक की तो मृत्यु हो जाती है’ बता वे कौन हैं ?’’ 
वा. वृ. - “यह तो पीठ में चांदी(घाव) वाला घोड़ा और चन्द्रमा की किरण हैं । एक जाति विशेष के घोड़े के पीठ में घाव होवे और उस घाव में सरद पूर्णिमा की राषि को चन्द्रमा की किरण पड़ जाय तो वह घोड़ा मर जाता है और अन्य सब को चन्द्र किरण से सुख प्राप्त होता है ।’’ 
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! ये तो भगवत् विरही जन का मन और मायिक सुख हैं । मायिक सुख से और सबको तो आनन्द प्राप्त होता है; किन्तु भगवत् विरही के चित्त में मायिक सुख आते ही वह परमार्थ दृष्टि से मर जाता है । अर्थात् उसका पतन हो जाता है । तू भी सावधान रहना, कहीं तेरा मन भी मायिक सुखों में फँसकर जीवन नष्ट नहीं कर डाले । अपने चित्त को सदा सत्संग रूप रस्सी में बाँध कर रक्खा कर, तब ही यह रह सकेगा । यदि थोड़ी देर भी स्वतंष छोड़ दिया तो हाथी के स्नान के समान करे-कराये पर धूल डाल लेगा ।’’ 
(क्रमशः)

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