शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

= १३३ =


卐 सत्यराम सा 卐 
दादू पाणी मांहीं पैसि करि, देखै दृष्टि उघारि ।
जलाबिंब सब भरि रह्या, ऐसा ब्रह्म विचारि ॥८३॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे पानी में "पैसि करि" कहिए, बैठकर गोता लगाकर और दृष्टि खोल कर देखने से सर्वत्र जलाबिंब ही भान होता है, वैसे ही ब्रह्मसरोवर में परमेश्वर का प्रेम रूपी जल भरा है, जिसमें लय चिन्तनरूप गोता लगाने से आत्म - ज्ञान रूपी दृष्टि उदय होती है । फिर सर्वत्र ब्रह्मानन्द का ही अनुभव करता है ॥८३॥ 
प्रसंग - अकबर बादशाह ने दादूजी से प्रश्न किया था कि "ब्रह्मज्ञान होने से सारा जगत ब्रह्म रूप भासने लगता है", यह मेरे को किसी दृष्टान्त के द्वारा समझाइये, तब उक्त ८३वीं साखी कहकर समझाया था । जैसे जल में डुबकी लगाकर जल में आँखें खोलने से जल ही जल नजर आता है, वैसे ही ब्रह्मज्ञान में निमग्न होकर ज्ञान नेत्रों द्वारा देखने से सम्पूर्ण विश्व ब्रह्मरूप ही दीखता है । यह सुनकर बादशाह पूर्णरूप से सन्तुष्ट हो गया ।
नारद पूछी विष्णु तैं, प्रभु मोहि ब्रह्म दिखाइ । 
जावो समुद्र पर गयो, वरुण कहै जल पाइ ॥ 
दृष्टान्त - एक समय नारद मुनि ने मन में विचार किया कि ब्रह्म कैसा है ? यह सोचकर भगवान विष्णु के पास पहुँचे । भगवान को प्रणाम किया और बोले, हे स्वामिन् ! मुझे ब्रह्म का दर्शन कराओ । भगवान बोले - नारद जी आप समुद्र के पास जाओ, वह आपको ब्रह्म का दर्शन करा देगा । समुद्र पर गए । समुद्र देवता प्रगट हुए । नारद जी बोले - मुझे आप ब्रह्म का दर्शन करा दो । इस पर वरुण देव बोला - आप मुझे जल पिला दो, प्यास लगी है । नारद जी बोले - आप तो जल रूप ही हो । वरुण बोला - आप भी ब्रह्मरूप हो, निश्चय करो । तभी नारद जी को निश्चय हो गया कि मेरा आत्मस्वरूप ही ब्रह्म है ।
छन्द - 
ज्यूं मृतिका घट नीर तरंगहि, 
तेज मसाल किये जु बहूता । 
वायु बघूरनि गांठ परी बहु, 
बादल व्योम सु व्योम जीमूता ॥ 
वृक्ष जु बीज हि, बीज सु वृक्षहि, 
पूत सु बापहि बाप सपूता । 
वस्तु विचारत एकहि सुन्दर, 
तान रु बान सु देखिये सूता ॥ 
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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साभार : Madhu Krishna's Devotee ~

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Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare 
Hare Ram Hare Ram Ram Ram Hare Hare
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ईश्वर क्या है ?
यह प्रश्न कितनों के मन में नहीं है ! और यह बात ऐसे पूछी जाती है, जैसे कि ईश्वर कोई वस्तु है---- खोजने वाले से अलग और भिन्न और जैसे उसे अन्य वस्तुओं की भांति पाया जा सकता है ! ईश्वर को पाने की बात ही व्यर्थ है---- और उसे समझने की भी ! क्योंकि वह मेरे आरपार है ! मैं उसमें हूँ ! और ठीक से कहे तो 'मैं' हूँ ही नहीं, केवल वही है ! 
ईश्वर 'जो है' उसका नाम है ! वह सता के भीतर 'कुछ' नहीं है; स्वयं सता है ! उसका आस्तित्व भी नही है, वरन आस्तित्व ही उसमे है ! वह 'होने' का, अनाम का नाम है ! 
इससे उसे खोजा नही जाता है, क्योंकि मैं भी उसी में हूँ ! उसमें तो खोया जाता है और खोते ही उसका पाना है !
एक कथा है ! एक मछली सागर का नाम सुनते-सुनते थक गयी थी ! एक दिन उसने मछलियों की रानी से पूछा: 'मैं सदा से सागर का नाम सुनते आयी हूँ, पर यह सागर है क्या? और कहाँ है ?' उस रानी ने कहा: ' सागर में ही तुम्हारा जन्म है, जीवन है और जगत है ! सागर ही तुम्हारी सत्ता है ! सागर ही तुम में है और तुम्हारे बाहर है ! सागर से तुम बनी हो और सागर में ही तुम्हारा अंत है ! सागर तुम्हें प्रतिपल घेरे हुए है ! 
ईश्वर प्रत्येक को प्रतिपल घेरे हुए है ! पर हम मूर्छित हैंहै, इसलिए उसका दर्शन नहीं होता है ! मूर्छा जगत है, संसार है ! अमूर्च्छा ईश्वर है —

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