卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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नवम दिन ~
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नहिं कुछ चाहे वन मन भावे,
भू सुत भक्ष्य न जीव सतावे ।
वन का मृग सखि ! मैं पहचाना,
नहिं, सखि ! तापस रत हरि ध्याना ॥६॥
आं वृ. - “जो संसारिक भोगों की इच्छा नहीं करता और जिसे वन ही प्रिय लगता है । पृथ्वी से उत्पन्न वस्तु ही खाता है तथा किसी भी प्राणी को नहीं सताता । बता वह कौन है ?’’
वा. वृ. - “वह तो वन का मृग है ।’’
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो हरिध्यान परायण तपस्वी है । हरि भक्त तपस्वी को हरि ध्यान बिना कुछ प्रिय नहीं होता । इसी कारण उसे वन का एकान्त स्थान प्रिय होता है । तू भी भगवत् ध्यान करे तब एकान्त में बैठकर किया कर ।’’
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वा. वृ. -
“मिलत कहां एकान्त थल, सकी ! गेह के मांहि ।
तू रहती हिय गुहा में, घर को जानत नांहि ॥७॥
घर में होते शब्द बहु, दीखत नाना वस्तु ।
फिर भी मैं कुछ करूँगी, नाम जप तो अस्तु ॥८॥’’
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आ. वृ. -
“अरी सखी ! एकान्त तो, घर में भी हो जाय ।
पट कुटिया कर कान में, डाट लगा हरि ध्याय ॥९॥
सखि ! तुम्हारे बचन से ज्ञात होता है कि - तुम्हारे घर में कोई छोटी कुटिया नहीं होगी । बड़े कमरे में ही सब घर के मनुष्य रहते होंगे, तब ही तो सब के शब्द सुनाई देते हैं और सब वस्तुएँ दीखती है । परन्तु उसमें भी एकान्त हो सकता है । तुम, मच्छरदानी के आकार की एक मोटे और काले रंग के कपड़े की इतनी बड़ी कुटिया बना लो जिसमें आसन लगा कर ठीक-ठीक बैठ सको । हरि ध्यान के समय उसे तानकर उसमें बैठ जाओ और कानों में कपड़े की डाट लगा लो । फिर न तो तुम्हें किसी का शब्द सुनाई देगा और न कोई वस्तु ही दीखेगी । फिर अपने नियत समय तक उसमें भगवत् ध्यान करो । प्रतिदिन करने से भारी लाभ होगा । यह लो तुम्हारे घर में ही वन बन गया । अब तो तुम्हारी ही कमी है ।’’
(क्रमशः)
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