सोमवार, 6 जनवरी 2014

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(न.दि.- १८/९)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
नवम दिन ~
इक पर एक नहीं भल आवे, 
सजनी ! वह मुझको नहिं भावे ।
मैले पट रंग न चढ़ पाता, 
ज्ञान न अशुचि चित्त पर आता ॥१८॥
आ. वृ. - “एक में एक अच्छी प्रकार प्रवेश नहीं करता । जिसमें प्रवेश नहीं करता, वह मुझे अच्छा नहीं लगता । बता वे कौन हैं ?’’ 
वा. वृ. - “मलीन वस्त्र पर रंग अच्छा नहीं आता और मैला वस्त्र तुझे अच्छा कैसे लगेगा !’’ 
आ. वृ. - “नहिं, वे तो अशुद्ध मन और ज्ञान हैं । मलिन मन में ज्ञान नहीं ठहरता और मन की मलीनता ही मुझे अच्छी नहीं लगती । सखि ! भगवान् शुद्ध मन मनुष्य को ही दर्शन देते हैं और लोक में भी वही श्रेष्ठ माना जाता है । अत: लोक और परलोक सुधार के लिये, दानादिक निष्काम कर्म के द्वारा मन को अवश्य शुद्ध करना चाहिये । मन शुद्ध होगा तब ही आगे साधन चल सकेगा । कहा भी है -“मन के हारे हार है, मन के जीते जीत । पार ब्रह्म को पाइये, मन की ही सुप्रतीत ।' मन के आगे हार मानने से, अर्थात् मन की इच्छानुसार साधन छोड़ने से तो संसार में हार ही होगी और मन की जीत लिया तो जीत ही है । मन की प्रतीति(विश्‍वास) से ही परब्रह्म की प्राप्ति होती है । बन्ध और मोक्ष में मन ही कारण है, यदि मन अशुद्ध रहा तो निश्‍चय करके बन्धन ही रहेगा और मन शुद्ध हो गया तो अवश्य ज्ञान द्वारा मोक्ष हो ही जायगा ।’’
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सुन्दर रज बड़ भागी पावे, 
लेवे उसके सब दुख जावे ।
स्वर्ण शैल सरिता की जानी, 
संत चरण की जान सयानी ॥१९॥
आ. वृ. - “एक ऐसी सुन्दर रज है, उसे बड़ भागी ही प्राप्त करते हैं और जो उसे लेते हैं, उनके सभी क्लेश चले जाते हैं । बता वह कौन है ?’’ 
वा. वृ. - “सुमेरु से जो नदियां चलती हैं, उनकी रज होगी । उसमें सोना होता है और वह भाग्यशाली को ही मिलता है । सोना, जिसके हो उसके दु:ख क्यों रहेंगे ।’’ 
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह संत चरणों की रज है । स्वर्ण से तो दरिद्रता आदि कुछ साधारण दु:ख ही मिटते हैं सब नहीं, किन्तु संत चरणों के पास रहने से तो भयंकर मानस रोग काम क्रोधादिक भी नष्ट हो जाते हैं । यदि तू सर्व दु:खों से मुक्त होना चाहती हैं तो संतों की ही शरण जाना । सुन, एक उच्च कोटि के संत जी ने भी इस विषय में अपना अनुभव इसी प्रकार व्यक्त किया है -
“जलती बलती आतमा, साधु सरोवर जाय ।
‘दादू’ पीवे राम रस, सुख में रहे समाय ।’’ 
संतों द्वारा रामरस(राम-भक्ति रूप रस) प्राप्त होता है । जिसके पीने से जीव सुख स्वरूप राम में ही समा जाता है, अर्थात् ब्रह्म रूप ही हो जाता है ।’’ 
(क्रमशः) 

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