*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“अष्टम - तरंग” १५-१६)*
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*समुद्र में जहाज फटी मोहन ने तखता पकड़ा*
छाजन भोजन नीर, बहुमोल द्रव्य भीर,
नवका चलत निधि पवन अधारी है ।
गुण मास चली नाव, अटकी भँवर आव,
उछले सलिल कल, कोई न उबारी है ।
तखता हु रह्यो एक, मोहन पकरि नेक,
पवन संयोग जाय, साधुन निहारी है ।
पाथर हु गह्यो कर, तखता हु खैंच कर,
आसन को नाय शीश, देव सिद्धि सारी है ॥१५॥
वस्त्र आभूषण, भोजन सामग्री, एवं बहुमूल्य द्रव्यों से भरी नौका, पवनवेग से संचालित होकर समुद्र में बढ रही थी । तीन मास की समुद्री यात्रा के बाद नौका एक भँवर में फँस गई । उसी समय समुद्री तूफान भी आ गया, जल उछलने लगा । जहाज टूट कर बिखर गया । मोहन एक तख्ते को पकड़े हुये, पवनवेग से उछलती समुद्री लहरों में बहने लगे । बहते - बहते एक पर्वत शिला से टकराये । वहाँ तपस्यारत संतों ने बहते हुये प्राणी को देखा और तख्ता खैंचकर समुद्र जल से बाहर निकाला । मोहन ने संतों के आसन पर प्रणाम किया । वे दिव्य संत प्रतीत होते थे ॥१५॥
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*समुद्र में संतों की कृपा से टापू में पहुँचे*
मोहन प्रणाम कीन्ह, बैठे तहँ साधु तीन,
सिद्ध कहें - कौन तुम, आये कित लेखिये ।
बोहित की बात सब, साधु ढिग कही तब,
आज मम अहोभाग, दरशन देखिये ।
खाली ठोर आसन की, दादूराम सिद्धन की,
द्विज कुल धारे रूप, परा वाणी पेखिये ।
दादू है दयालु नाम, सकल गुणों के धाम,
तारत हैं आठूं याम, गुणहु विशेषिये ॥१६॥
मोहन ने वहाँ तीन आसनों पर विराजमान संतों के दर्शन किये, चौथा आसन खाली था । सिद्ध संतों के पूछने पर मौहन ने नौका दुर्धटना का वृतान्त सुनाया, और अपना अहोभाग्य माना कि - संतों के दर्शन हुये । फिर खाली आसन के बारे में पूछा - तब उन सिद्ध संतों ने रहस्य - उन्मेष परक वाणी से बताया कि - यह आसन संत श्री दादू दयाल जी का है । वे श्री हरि की परावाणी के आदेशानुसार अहमदबाद स्थित द्विजकुल में अवतार लेकर प्रकट हुये हैं, सकल गुणों के धाम वे आठों याम हरि भक्ति करते रहते हैं और जीवों का उद्धार कर रहे हैं ॥१६॥
(क्रमशः)
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