卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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दशम दिन ~
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एक मिले पत्थर बन जावे,
अरु इक मिल रस स्वरूप पावे ।
समझ गई मैं यह है पानी,
नहीं जीव यह कहते ज्ञानी ॥१६॥
आ. वृ. - “एक के मिलने से, एक पत्थर हो जाता है और एक दूसरे से मिलकर रस रूप बन जाता है । बता वे कौन है ?’’
वा. वृ. - “सखि ! मैं समझ गई, यह तो पानी है । जल जब गहरी शीत से मिलता है तब बर्फ बन जाता है । धूप से मिलता है तब वह बर्फ ही जल रूप हो जाता है ।’’
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो जीव है । अज्ञान से मिलकर तो उत्तरोत्तर गिरता गिरता पत्थर बन जाता है और ज्ञान से मिलकर रस(ब्रह्म) रूप हो जाता है । ऐसे ही ज्ञानी जन कहते हैं । सखि ! तू अज्ञानी प्राणियों का संग न किया कर । क्योंकि उनके संग से अज्ञान ही तो बढ़ेगा और अज्ञान के बढ़ने पर नीच योनियों में ही गमन होगा । इसलिये तू तो ज्ञानियों के पास ही बैठा कर । ज्ञानियों के संग से ही अज्ञान नष्ट होकर ज्ञान होगा और ज्ञान से तू रस(ब्रह्म) स्वरूप होकर सब विश्व को ब्रह्म स्वरूप ही देखने लगेगी । इसमें कोई भी संशय की बात नहीं है ।’’
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सरवर तट पर सखि ! इक आवे,
शांत भाव जल पी सुख पावे ।
बकरी मैं समझी हूं प्यारी,
नहिं, सखि ! यह उत्तम अधिकारी ॥१७॥
आ. वृ. - “एक सरोवर तट पर आकर बड़े शांत स्वभाव से जल पीकर सुखी होता है । बता यह कौन है ?’’
वा. वृ. - “बकरी है । बकरी तालाब के तट पर अपनी गोडियें टेककर बड़ी शांति से जल पीती है और सुखपूर्वक अलग हट जाती है । किन्तु भैंसा जल के भीतर प्रविष्ट होकर जल को गंदा कर देता है ।’’
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो उत्तम अधिकारी है और सत्संग सरोवर है । उत्तम अधिकारी सत्संग में जाता है तब शांति से बैठ कर राम-भक्ति-रस पान करके प्रसन्न होता है । किन्तु दुर्जन सत्संग में जाता है तब तर्क वितर्क के द्वारा सत्संग में भंग पटक कर सभी को क्षुभित कर डालता है । तू जब सत्संग में जाय तब शांति के साथ चित्रलिखित के समान बैठ जाया कर और वक्ता के वचन की ओर अपना कान रक्खा कर । दूसरी ओर ध्यान देगा तो सत्संग के लाभ से वंचित रह जायगी और फिर पछतावेगी । कारण सत्पुरुषों का संग सदा कहां मिलता है । किसी पूर्व-पुण्य के प्रताप से कभी-कभी मिलता है । मिलने पर प्रमाद करना अपनी महान् हानि करना है । सत्संग के समय सींना, अन्न साफ करना आदि काम लेकर नहीं बैठना चाहिये, क्योंकि चित्त वृत्ति एक समय में एक ही काम करती है । उससे दो काम एक साथ होते ही नहीं ।’’
(क्रमशः)
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