॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
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*दादू अमृत छाड़ कर, विषय हलाहल खाइ ।*
*जीव बिसाहै काल को, मूढा मर मर जाइ ॥३९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सांसारिक जीव, निष्काम अनन्य राम भक्ति रूप अमृत को त्याग कर हलाहल रूपी विषयों का उपभोग करते हैं । यह अज्ञानी जीव मरने के लिये काल को खरीद रहा है ॥३९॥
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*निर्मल नाम विसार कर, दादू जीव जंजाल ।*
*नहीं तहॉं तैं कर लिया, मनसा मांहीं काल ॥४०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर का निष्काम नाम - स्मरण और जो आत्मा नित्य ज्ञान स्वरूप तथा मुक्त है उन्हें भूलकर अज्ञान के द्वारा, मन में अध्यास करके, आभास अन्तःकरण रूप जीव, काल का जो बन्धन अविद्या जाल है, उसी में बँधा है ॥४०॥
विद्या पढी सजीवनी, काल बंचनी नांहि ।
जग जीवन गुरु ज्ञान बिन, पड़या सिंह मुख मांहि ॥
दृष्टान्त ~ चार पुरुष काशी में संजीवनी विद्या पढ़ने गये । जब विद्या पढ़ ली तो वापस घर लौट कर आ रहे थे । जंगल में विचार करने लगे कि अपन ने विद्या की परीक्षा तो की ही नहीं ।
एक पानी का लोटा लाये और उनमें से प्रथम पुरुष ने लोटे से एक पानी की चुल्लू लेकर हड्डियों के ऊपर जंगल में फेंका । सारी हड्डियां सिमट करके एक ढेर हो गई ।
फिर दूसरे ने जल का छींटा मारा, तो हड्डियों का पशुओं के आकार का ढांचा बन गया ।
तीसरे ने ज्यों ही छींटा मारा तो उसमें खून, मांस, चमड़ी, रोम, आंखें, मुंह इत्यादि बनकर बबर शेर बन गया ।
पांचवॉं एक गुरुमुखी बुद्धिमान् पुरुष भी उसके साथ था । वह कहने लगा, बस - बस, अब रहने दो । आपकी विद्या की परीक्षा तो अब हो ही गई ।
चौथा बोला ~ नहीं, मैंने तो की ही नहीं परीक्षा । तब गुरुमुखी तो एक वृक्ष पर चढ़ गया । उसने ज्यों ही जल का छींटा, मंत्र पढ़कर मारा, तो उसमें एकदम चेतन सत्ता आ गई और तत्काल गर्जना करके एक - एक पंजा चारों के मारा, वे सभी काल का ग्रास बन गये ।
विद्या पढ़ी सजीवनी, किया नहीं विचार ।
तुलसी बुद्धिवन्त ऊबर्यो, चढि तरवर की डार ॥
- तुलसी
(क्रमशः)
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