*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“अष्टम - तरंग” २१-२२)*
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*संतों की कृपा से जीवन सफल हो गया*
तहाँ आसन एक खाली, देखि मैं पूछ्यो तभी ।
दादु गुरु को नाम लीन्हों, संत गद्गद हो सभी ।
आप दर्शन चाव मन में, जगी अन्तर में तभी ।
सिद्ध सत्ता यहाँ आवत, करो किरपा गुरु अभी ॥२१॥
समुद्र के बीच पर्वत शिला पर विराजमान उन तीनों महात्माओं से जब मैंने वहाँ स्थित एक खाली आसन के विषय में पूछा तो उन्होंने संत श्री दादूदयाल जी का नाम बताया । यह नाम लेते हुये सभी संत गद्गद हो गये थे । तब मैंने आपके दर्शनों की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने नींद में सोते हुये मुझे अपनी सिद्धि से यहाँ पहुँचा दिया । हे गुरुदेव ! अब कृपा करके शिष्य बना लीजिये ॥२१॥
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*श्री दादूजी का शिष्य बन गया*
सुने वाचक भक्ति लायक, धर्यो मस्तक हाथ ही ।
मंत्र मुख उच्चार कर निज - शिष्य कीन्हो साथ ही ।
भयो मोहनदास पावन, पाय सद्गुरु नाथ ही ।
मिले दरिया माहिं ताथें, यही नाम हु ख्यात ही ॥२२॥
मोहन के भक्ति परक वचन सुनकर स्वामीजी ने सिर पर हाथ रखा, और मंत्रोच्चारण करके शिष्य बना लिया । सद्गुरु से दीक्षा पाकर मोहनदास पावन हो गया । दरिया(समुद्र) के मध्य से गुरु शरण में पहुँचा, अत: दरियाई छाप से प्रसिद्ध हुआ ॥२२॥
(क्रमशः)
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