बुधवार, 8 जनवरी 2014

स्वप्ना तब लग देखिये १०/९४

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मन का अंग १०/९४*
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*स्वप्ना तब लग देखिये, जब लग चंचल होइ ।*
*जब निश्चल लागा नाम सौ, तब स्वप्ना नहिं कोइ ॥९४॥*
दृष्टांत - 
शिष हर्षा स्वप्ना निरख, मक्के गया में पीर ।
मूढ़ रोय अच्छा नहीं, ले जासी विषतीर ॥१८॥
एक फकीर के शिष्य को स्वप्न में मक्का का दर्शन हुआ । उसकी निद्रा दूटी तब स्वप्न की स्मृति से प्रसन्न होकर वह हँसने लगा । तब उसके पीर(गुरु) ने पू़छा - कैसे हँसता है ? उसने कहा - स्वप्न में मक्का की यात्रा की है, उसकी प्रसन्नता से हँसी आ गई है । 
गुरु ने कहा - मूर्ख ! स्वप्न तो अच्छा नहीं होता । स्वप्न देखकर तो रोना चाहिये । कारण ? आज तो स्वप्न तुझे मक्का में ले गया है और कभी स्वप्न विषय विष की नदी के तीर भी ले जाकर तेरा पतन करेगा । सोई उक्त ९४ की साखी में कहा है - स्वप्न तब तक ही आते हैं जब तक मन चंचल रहता है और जब मन प्रभु में निश्चल रहता है तब स्वप्न नहीं आते । अतः मन को निश्चल बनाने का यत्न करना चाहिये ।
(क्रमशः)

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