卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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नवम दिन ~
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घर घर डोले लाज न आवे,
कहीं कहीं पर अल्पहि पावे ।
सखी ! भिखारिन है मैं जानी,
नहिं जिझासु बुद्धि कह ज्ञानी ॥१०॥
आ. वृ. - “एक घर घर पर फिरती है । पर घर जाने में लज्जा नहीं करती । कहीं-कहीं से उसे कुछ थोड़ा-थोड़ा लाभ भी होता है । बता वह कौन है ?’’
वा. वृ. - “यह तो भिखारिन है ।’’
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो जिज्ञासु की बुद्धि है । संतों के आश्रम में जाकर उनके उपदेश श्रवण करती है । संतों के पास जाने में लज्जा नहीं करती । किसी-किसी आश्रम में कोई-कोई ज्ञानी संत मिलते हैं । उनसे कुछ-कुछ शिक्षा ग्रहण करती रहती है । तू भी ऐसा ही किया कर । संतों के पास जाकर उनके उपदेश ध्यान से सुना कर और धारण किया कर । ऐसा करने से शनै: शनै: तेरे पास भी ज्ञान एकष होकर, तू भी एक दिव्य ज्ञान का कोश बन जायगी तथा संत बन कर अपना और संसार का कल्याण करने में समर्थ हो सकेगी । अत: संतों के सत्संग में जाने से कभी लज्जा नहीं करनी । प्रत्युत: दूसरों को भी प्रेरणा करके सत्संग में लाना, जिससे अज्ञानियों को भी बोध प्राप्ति द्वारा सुख मिल सके ।’’
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एक पुरुष जब घर में आवे,
इक नारी तहँ रह नहिं पावे ।
आये काल रहे नहिं नारी,
ज्ञान अविद्या हैं वे प्यारी ॥११॥
आ. वृ. - “एक पुरुष घर में आता है तब वहां एक नारी नहीं रह सकती । बता वह कौन है ?’’
वा. वृ. - “काल आने पर शरीर में नाड़ी नहीं रहती है ।’’
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! ज्ञान जब आता है तब स्रदय में अविद्या नहीं रहती । तू भी अपनी अविद्या को हटाने के लिये शीघ्र ही साधन द्वारा ज्ञान प्राप्त कर, जिससे तुझे शांति प्राप्त हो सके ।’’
(क्रमशः)
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