रविवार, 12 जनवरी 2014

= ५ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
साभार : Rp Tripathi ~
**आधि-ब्याधि-उपाधि, रुपी त्रिशूल का समाधान :: समाधि :: एक चिंतन** 

परम आदरणीय मित्रो, 
आधि कहते हैं, मानसिक संतापों को ..!! ब्याधि कहते हैं, शारीरिक तापों को ..!! और उपाधि कहते हैं, बाहरी जगत से अर्जित विशेष अलंकारों को ..!! 
और यह त्रिशूल इसलिए कहे जाते हैं, 
क्योंकि यह तीनों, हमें स्वरुप ज्ञान(आत्म-ज्ञान) की विस्मृति करा देते हैं ..!! हम सभी में सम-दर्शन अर्थात, स्वयं को और अन्य को भी आत्मा, याद नहीं रख पाते, और कर्मों को, कुसलता से करने से, वंचित रह जाते हैं ..!! 
कर्मों को कुसलता से ना कर पाने से तात्पर्य है -- 
जैंसे एक भौतिक वैज्ञानिक की, आंतरिक ज्ञान की नज़र में, यह सम्पूर्ण भौतिक संसार, यहाँ तक की हमारे शरीर भी, एक ही ऊर्जा से प्रगट, मात्र ऊर्जा के विभिन्न कम्पन हैं ..!! 
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परन्तु इसका अर्थ यह कभी नहीं कि, आंतरिक समता होते हुए, बाह अर्थात व्योहारिक जगत में, बिषमता की आवश्यकता नहीं है ..!! 
बाह्य जगत में तो, 
गुण-धर्मों के अनुरूप, विवेक-युक्त आचरण करने में ही भलाई निहित है, नहीं तो हम, एक पागल की भांति आचरण कर, अपना अहित कर लेंगें ..!! 
इसी तरह सम्मानित मित्रो, 
अध्यात्मिक वैज्ञानिकों की नज़र में, यह सम्पूर्ण भौतिक ऊर्जा भी, एक अध्यात्मिक सत्ता -- वासुदेव सर्वम -- का विस्तार है ..!! परन्तु इसका अर्थ यह कभी नहीं कि -- सम-दर्शी होने से, सम-वर्ती भी बन जाएँ ? 
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अर्थात, माँ-पत्नी-बहिन-पुत्री में एक आत्मा देखते हुए, उन सब से, एक सा व्योहार करें ? यह तो, अविवेक-पूर्ण व्योहार होगा ..!! 
मित्रो विचार करें -- 
१. जो हनुमान -- सियाराम में सब जग जानी, करहु प्रणाम जोरी जुग पानी .., के उपासक हैं, ने कैसे, अनगिनित राक्षसों का, संहार किया ? 
२. जो अर्जुन -- विश्व-रूप दर्शन से वासुदेव सर्वम .., का दर्शन करने लगा था, ने कैंसे, अनगिनित अधर्मियों का, संहार किया ? 
३. जो माँ -- अपने बच्चे को अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करती है .., ने कैंसे, मदर-इंडिया में, अपने बच्चे को ही, गोली मार दी ? 
४. जो राम या कृष्ण -- स्वयं विश्व-रूप होते हुए .., कैंसे अधर्मियों के रूप में, स्वयं का संहार किया ? 
और सम्मानित मित्रो, 
जिस पलों में, हमें यह उपरोक्त समझ में आता है, उस स्थिति को ही, एकत्व में बहुत्व का दर्शन, या समाधि की स्थिति, कहते हैं ..!! 
यह वह स्थिति है, जिसमें हम, सम-दर्शी तो रहते हैं, परन्तु सम-वर्ती नहीं, वरन विवेक-वर्ती होते हैं ..!! 
इसे ही गीता में, राग -द्वेष से मुक्त, अर्थात स्थित-प्रज्ञता की स्थिति, या समत्वं योग उच्चते, और योग कर्मशु कौंसलम से संबोधित किया गया है ..!!  
यह वह स्थिति होती है, जिसमें हम -- गुणा गुणेन वर्तन्ते .., का दर्शन कर, साक्षी-भाव की सहजता में, जीवन-मुक्त, जीवन-यापन करने लगते हैं ..!! 
यह स्थिति, हमें -- दैहिक-दैविक-भौतिक तापा, राम-राज्य काहू नहीं व्यापा .., का अनुभव करा देती हैं ..!! 
मित्रो, 
जैंसे, कोई छोटा बालक, अपने माता-पिता दोनों से पूंछे कि मैं, दोनों का बालक कैसे हो सकता हूँ ? यह समझाओ ? 
तो हम उसे, शाब्दिक-ज्ञान तो दे सकते हैं, परन्तु अनुभूति, के लिए तो उसे, परिपक्व अवस्था तक, पहुँचने की साधना तो, करनी ही पड़ेगी ..!! 
वैसे ही, 
साधना की परिपक्वता की स्थिति में पहुँचते ही, यह उपरोक्त शाब्दिक-ज्ञान, हमारी अनुभूति में, स्वतः उतरने लगता है ..!! 
अतः आवश्यकता है, जीवन को साधना-मय बनाने की ..!! अर्थात --साधो सहज समाधि भली .. शंकर सहज-स्वरुप तुम्हारा .., सत्यम शिवम् सुन्दरम .., तक पहुँचने की ..!! 
और जीवन में, 
सम-दर्शिना में रह, साम-दाम-दंड-भेद, का समुचित उपयोग कर, विषम या विवेक-वर्तिना की ..!! 
जिससे एक सुन्दर समाज के निर्माण में, हमारा क्रियात्मक योगदान हो, जिसकी आज बहुत आवश्यकता है ..! 
****ॐ कृष्णं वन्दे जगत गुरुम**** 
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अध्यात्म
दादू अनुभै थैं आनन्द भया, पाया निर्गुण नांव । 
निश्चल निर्मल निर्वाण पद, अगम अगोचर ठांव ॥२०३॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! स्वस्वरूप में अभेद होने से परमानन्द प्रापत होता है । कैसे ? "पाया निर्गुण नांव'' अर्थात् सतगुरु ने जो नाम का उपदेश किया, उस नाम ने हमारे सम्पूर्ण भय को नष्ट कर दिया है । और अब हमने निर्भय पद पाया है अर्थात् परमेश्वर का निर्भय स्वरूप पा लिया है । सो निश्चल, एक रस, निर्मल, वासनाशून्य, निर्वाण, माया आवरण से मुक्त, मन बुद्धि से अज्ञेय और इन्द्रियों से अगोचर है, जो अनुभव से जाना जाता है, ऐसा परमतत्व स्थान पा लिया है ॥२०३॥ 
दादू अनुभै वाणी अगम को, ले गई संग लगाइ। 
अगह गहै, अकह कहै, अभेद भेद लहाइ ॥२०४॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओ ! संतों की सुरति का ब्रह्माकार हो जाना ही अनुभव वाणी है । संतजन ब्रह्माकार सुरति होकर अगह ब्रह्म को अगह ही रूप करके साक्षात्कार करते हैं और "अकह'' कहिए, अकथनीय स्वरूप को अकथ ही कहकर कथन करते हैं । इस रीति से सब में अभेद ब्रह्मा का उसमें अभेद होकर ही मर्म को प्राप्त करते हैं ॥२०४॥ 
मधुरिकी मधु काढके, मधु में देत मिलाय । 
त्यों अनुभै जग जीव को, ब्रह्म माहिं ले जाय ॥ 
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)

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