卐 सत्यराम सा 卐
Swami Rajneesh
you have to learn the art of drinking
how to get drunk with the divine
how to dance in pure ecstasy
and in that ecstasy
the showering of the universe is a living experience
you are so drunk and fulfilled the mind simply disappears
in fact when you are so drunk
you do not know the way anymore
the search for truth is getting lost and lost
and getting so lost that the one who went to find the truth
got lost...he disappeared
and this new mystery became his home
he simply drowned into a deep silence
with nothing left
no search...no seeker...
simply no one present...
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आंगण एक कलाल के, मतवाल रस मांहि ।
दादू देख्या नैन भर, ताके दुविधा नांहि ॥३२९॥
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे व्यवहार में "कलाल" मद्य बेचने वाले के घर में मद्य पीने - वाले सभी जाति के एकत्रित होते हैं, उनमें उस समय भेदभाव नहीं होता है, इसी प्रकार सतगुरु के आंगन में और व्यापक ब्रह्म के विषय में अर्थात् चैतन्य रूपी कलाल के कहिए, अन्तःकरण में स्वस्वरूप परिचय रूपी रस - पान करके मन, इन्द्रिय और चतुष्टय अन्तःकरण तृप्त हो जाते हैं । जो पुरुष अपने स्वरूप को ज्ञान के द्वारा देख लेता है, उसके फिर द्वैतभाव नहीं रहता है ॥३२९॥
"देहं विनश्वरमवस्थितमुत्थितं वा सिद्धो न पश्यति यतोSध्यगमत् स्वरूपम् ।
दैवादुपेतमथ दैववशादपेतं वासो यथा परिकृतं मदिरामदान्धः ॥ "(भागवत)
ब्रह्मसाक्षात्कर्ता ज्ञानी को भेद - बुद्धि नष्ट हो जाने से देहाध्यास नहीं रहता, जैसे मदान्ध शराबी को अपने देह की सुध - बुध नहीं रहती ।
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पीवत चेतन जब लगै, तब लग लेवै आइ ।
जब माता दादू प्रेम रस, तब काहे को जाइ ॥३३०॥
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब तक चेतन कहिए सचेत है, तब तक दीक्षित के यहाँ आकर उपदेश और कलाल के यहाँ आने वाले रस(मदिरा) लेते रहते हैं । जब शिष्य ज्ञानामृत पीता - पीता "मतवाला" अर्थात् तृप्त हो जाता है और मद्य पीने वाला मस्त हो जाता है, तब फिर मद्य बेचने वाले के यहाँ मद्य पीने वाला नहीं जाता है और शिष्य पूर्ण ज्ञान - ग्रस्त होने पर देहाध्यास से मुक्त हो जाता है ॥३३०॥
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दादू अंतर आत्मा, पीवै हरि जल नीर ।
सौंज सकल ले उद्धरै, निर्मल होइ शरीर ॥३३१॥
टीका - हे जिज्ञासुओं ! बाहर शरीर तथा भीतर सम्पूर्ण इन्द्रियाँ और अन्तःकरण, इनको अन्तर्मुख करके साधक परमेश्वर का नाम - स्मरण रूपी अमृत पान करें, तो वे अपने सम्पूर्ण मनुष्य देह की सौंज कहिए, सामग्री को सफल बनाकर अपना उद्धार कर लेते हैं ॥३३१॥
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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