*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
.
*(“नवम - तरंग” २७-२८)*
.
*श्रीदादूजी ने बलिंद खान को समझाया*
दीन दयालु हिं लावत भीतर,
देखि खिजे खल रोष कराई ।
तूं नहिं जानत मोर प्रतापहु,
देखत हूं अब तोर सिधाई ।
दम्भहु घोर बिगाड़ दियो पुर,
काफिर व्है ठग सिद्ध कहाई ।
आप कही - शठ छाय रह्यो मद,
यो धन जोबन जात बिलाई ॥२७॥
संत को देखते ही बलिंद खान ने रोष जताया और कहने लगा - अरे पाखंडी ! तू मेरा पराक्रम प्रताप नहीं जानता, तेरी सिद्धाई अभी देखता हूँ । अरे ! तूने सारे नगर का धर्म ईमान बिगाड़ दिया । तू तो काफिर है, ठग है और अपने आप को सिद्ध फकीर कहता है । तब स्वामीजी ने समझाया - यह तुम्हारा शासनमद बोल रहा है । इस शठता को छोड़ दो । यह धन, यौवन, शासन सदा नहीं रहने वाला, एक दिन विलीन हो जायेगा ॥२७॥
.
*श्री दादूजी को भाकसी में दो रूप*
एक सदा परमेश्वर को डर,
मूरख तें कछु दीसत नाही ॥
यों सुनि रोष कियो खल कोपित,
बेगि धरे शठ भाकसि मांही ।
एक गये दिन, देख खुले पट,
बाहिर भीतर रूप दिखाही ॥
देखि डरे खल संत - प्रताप हिं,
बेगिहु पाँव परयो तिहिं ठाही ॥२८॥
सबका परमेश्वर एक है, कोई खुदा अल्लाह कहता है तो कोई उसे राम कहकर पुकारता है । उससे डरो, किन्तु तुम तो मदान्ध हो रहे हो । इस मूर्खता के कारण तुम्हें कुछ दिखता ही नहीं, कुछ समझ में नहीं आता । यह सुनकर मदान्ध शठ ने रोष के साथ स्वामीजी को भाकसी(कारागार कोठरी) में बंद कर दिया । दूसरे दिन देखा तो कारागार के पट खुले हुये मिले । स्वामीजी भीतर ही विद्यमान थे, और बाहर भी । संत का ऐसा प्रभाव और चमत्कार देखकर वह खल बहुत डरा, और तुरन्त ही चरणों में गिर पड़ा ॥२८॥
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें