शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

= न. त./२७-२८ =


*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ 
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~ 
*(“नवम - तरंग” २७-२८)* 
*श्रीदादूजी ने बलिंद खान को समझाया* 
दीन दयालु हिं लावत भीतर, 
देखि खिजे खल रोष कराई । 
तूं नहिं जानत मोर प्रतापहु, 
देखत हूं अब तोर सिधाई । 
दम्भहु घोर बिगाड़ दियो पुर, 
काफिर व्है ठग सिद्ध कहाई । 
आप कही - शठ छाय रह्यो मद, 
यो धन जोबन जात बिलाई ॥२७॥ 
संत को देखते ही बलिंद खान ने रोष जताया और कहने लगा - अरे पाखंडी ! तू मेरा पराक्रम प्रताप नहीं जानता, तेरी सिद्धाई अभी देखता हूँ । अरे ! तूने सारे नगर का धर्म ईमान बिगाड़ दिया । तू तो काफिर है, ठग है और अपने आप को सिद्ध फकीर कहता है । तब स्वामीजी ने समझाया - यह तुम्हारा शासनमद बोल रहा है । इस शठता को छोड़ दो । यह धन, यौवन, शासन सदा नहीं रहने वाला, एक दिन विलीन हो जायेगा ॥२७॥ 
*श्री दादूजी को भाकसी में दो रूप* 
एक सदा परमेश्वर को डर, 
मूरख तें कछु दीसत नाही ॥ 
यों सुनि रोष कियो खल कोपित, 
बेगि धरे शठ भाकसि मांही । 
एक गये दिन, देख खुले पट, 
बाहिर भीतर रूप दिखाही ॥ 
देखि डरे खल संत - प्रताप हिं, 
बेगिहु पाँव परयो तिहिं ठाही ॥२८॥ 
सबका परमेश्वर एक है, कोई खुदा अल्लाह कहता है तो कोई उसे राम कहकर पुकारता है । उससे डरो, किन्तु तुम तो मदान्ध हो रहे हो । इस मूर्खता के कारण तुम्हें कुछ दिखता ही नहीं, कुछ समझ में नहीं आता । यह सुनकर मदान्ध शठ ने रोष के साथ स्वामीजी को भाकसी(कारागार कोठरी) में बंद कर दिया । दूसरे दिन देखा तो कारागार के पट खुले हुये मिले । स्वामीजी भीतर ही विद्यमान थे, और बाहर भी । संत का ऐसा प्रभाव और चमत्कार देखकर वह खल बहुत डरा, और तुरन्त ही चरणों में गिर पड़ा ॥२८॥ 
(क्रमशः) 

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