शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(द्वा. दि.- ४/६)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
द्वादश दिन
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आये सब थल सुन्दर होवे, 
कोउक दुखी अन्य दुख खोवे ।
समझ गई वर्षा ॠतु आई, 
नहिं, सखि ! राम भक्ति मैं गाई ॥४॥
आ. वृ. - “एक के आने से सभी देश सुन्दर बन जाता है किन्तु कोई-कोई दु:खी होता है । बाकी अन्य सबके दु:ख नष्ट हो जाते हैं । बता वह कौन है ?’’ 
वा. वा. - “वर्षा ॠतु आने पर सभी देश हरा-भरा होकर सुन्दर लगने लगता है; किन्तु जवासा, ऊँट आदि किसी-किसी को दु:ख भी होता है । बाकी अन्य सभी सुखी होते हैं, यह प्रसिद्ध ही है ।’’ 
आ. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो भगवान् की भक्ति है । भक्ति जब स्रदय में आती है तब स्रदय महान् सुन्दर बन जाता है । स्रदय के कोई-कोई काम, क्रोधादिक गुण दु:खी होते हैं । बाकी विवेकादिक सभी दैवी गुणों को महान् सुख होता है । दैवी गुणों के साथ-साथ भक्ति से बुद्धि विकास और मन प्रसादन भी होता है । यह सभी बात अनुभव करने में आती है ।’’
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वा. वृ. -
“बता भक्ति की रीति, सखी ! मैं वही करूँगी ।
हो कितना भी कष्ट, तदपि मैं नहीं डरूँगी ॥
इसमें मानो नहीं, झूंठ लव भर तुम प्यारी ।
होनी चाहिये किन्तु, शीघ्र अब कृपा तुम्हारी ॥५॥’’
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आ. वृ. -
“अरी ! भक्ति के मंहि, क्लेश होता है भारी ।
बन जाते हैं प्रथम, शत्रु घर के नर नारी ।
फिर करते हैं विघ्न, ग्राम जन पद के लोगा ।
बहकाते हैं देव, भेजकर उत्तम भोगा ॥६॥’’
(क्रमशः)

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