सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

= १९१ =

卐 सत्यराम सा 卐
अध्यात्म
योग समाधि सुख सुरति सौं, सहजैं सहजैं आव ।
मुक्ता द्वारा महल का, इहै भक्ति का भाव ॥९॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! लय योग के द्वारा सुरति को लगाओ और सहजावस्था को प्राप्त होओ । इस प्रकार धीरे - धीरे अभ्यास द्वारा परमेश्वर की तरफ में लगाओ । यह मनुष्य देह मुक्तिरूपी महल का दरवाजा है । इस प्रकार परमेश्वर में भाव सहित प्रेमा भक्ति द्वारा लय लगाओ ॥९॥
सहज शून्य मन राखिये, इन दोनों के मांहि ।
लै समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नांहि ॥१०॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! योग में तो मन को निद्र्वन्द्व कहिए, निर्विकल्प स्वरूप बना कर स्वस्वरूप में स्थिर करिये, किन्तु परमेश्वर में लय रूप समाधि द्वारा स्थिरता करके भक्ति द्वारा भगवद् दर्शन रूप अमृत का पान करिए । वहाँ फिर किसी भी प्रकार के काल का भय नहीं रहता । तात्पर्य यह है कि तत्वबोध लक्ष्य तो योग का भी वही है, किन्तु भक्तिरूप लय का मार्ग सुगम है ॥१०॥
(श्री दादूवाणी ~ लै का अंग)

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